परमहंस योगानन्दजी द्वारा “योग पहले ईश्वर की खोज करना सिखाता है — और हर जगह संतुलन खोजें”

11 जुलाई, 1940 को सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय में “मानसिक एकाग्रता द्वारा सफलता” विषय पर प्रवचन से उद्धृत। पूरा आलेख वाईएसएस द्वारा प्रकाशित परमहंसजी के प्रवचन एवं आलेख के तीसरे खंड Journey to Self-realization से प्राप्त कर सकते हैं।

योग विद्या आपको संसार में अपने कर्त्तव्यों से भागना नहीं सिखाती। वह सिखाती है कि संसार में ईश्वर ने आपको जहाँ भी रखा है वहीं पर अपने कर्त्तव्यों को करते हुए अपने मन को ईश्वर के विचारों से सराबोर कर लें।

यदि आप यह सोचते हुए वन में या पर्वतों में एकान्त जीवन की इच्छा रखते हैं कि वहाँ के कर्त्तव्य-मुक्त जीवन में आप ईश्वर को पा लेंगे तो आपके पास प्रतिदिन दिन भर ध्यान में बैठने की इच्छाशक्ति होनी चाहिए।

वह तप निश्चय ही सराहनीय है। परन्तु इस संसार में रह पाना परन्तु उसके होकर न रहना — ईश्वर पर मन को स्थिर रखकर दूसरों के लाभ के लिए कार्य करते रहना — अधिक श्रेष्ठ है। ‘‘कर्मों के केवल त्याग मात्र से मनुष्य सिद्धि को प्राप्त नहीं होता…. हे धनंजय! तू (फल की) आसक्ति को त्यागकर तथा समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्त्तव्य कर्मों को कर।” (श्रीमद्भगवद्गीता III:4 तथा II:48)।

आपको बड़े और छोटे कर्त्तव्यों को उचित दृष्टिकोण में देखना चाहिए और एक कर्त्तव्य को दूसरे कर्त्तव्य का विरोध नहीं करने देना चाहिए। हिंदू शास्त्रों में एक विधान है, संसार को दिए गए सर्वोत्तम विधानों में से एक : ‘‘यदि एक कर्त्तव्य दूसरे किसी कर्त्तव्य का विरोध करता है तो वह सच्चा कर्त्तव्य नहीं है।”

यदि आप अपने स्वास्थ्य को भी दाँव पर लगाकर आर्थिक सफलता के पीछे पड़े हुए हैं तो आप शरीर के प्रति अपना कर्त्तव्य नहीं निभा रहे हैं। यदि आप धर्म के इतने दीवाने हैं कि आप उसके लिए अपने भौतिक कर्त्तव्यों की उपेक्षा करते हैं तो आप संतुलित नहीं हैं; आपने एक कर्त्तव्य को अपने शरीर और परिवार के प्रति आपके जो कर्त्तव्य हैं उनका विरोध करने दिया है। यदि आपने अपने परिवार की ओर ही ध्यान देने के लिए ईश्वर के प्रति आपके जो कर्त्तव्य हैं उन्हें भुला दिया तो वह कर्त्तव्य पालन नहीं है।

अनेक लोग पूछते हैं, ‘‘क्या हमें अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए पहले भौतिक सफलता प्राप्त करके फिर ईश्वर की खोज करनी चाहिए ? या पहले भगवान् की खोज करनी चाहिए और बाद में भौतिक सफलता की ओर मुड़ना चाहिए ?’’ निस्संशय ईश्वर पहले। कभी भी अपना दिन ईश्वर के साथ गहरे ध्यान में संपर्क किए बिना शुरू या समाप्त मत कीजिए।

हमें यह याद रखना चाहिए कि ईश्वर से शक्ति लिए बिना हम कोई भी कर्त्तव्य कभी नहीं निभा पाते। इसलिए हमारा पहला कर्त्तव्य ईश्वर के प्रति बनता है। …

ईश्वर प्राप्ति और भौतिक समृद्धि के लिए साथ-साथ प्रयास करना कहने के लिए तो अच्छा है, परन्तु जब तक आप नियमित रूप से गहरा ध्यान नहीं करते ताकि आप अपनी चेतना को ईश्वर में पहले स्थिर कर लें, तब तक संसार आपका सारा ध्यान व्याप लेगा और आपके पास ईश्वर के लिए कोई समय नहीं बचेगा।

ईश्वर साथ हैं इस भाव के बिना कि गए भौतिक कर्त्तव्य प्रायः यंत्रणा के प्रकारों में परिवर्तित हो जाते हैं। परन्तु यदि आप ईश्वर को सदा अपने साथ रखते हैं और कर्त्तव्यों को ईश्वर की चेतना में पूरा करते हैं तो आप सबसे सुखी मानव बन सकते हैं। ‘‘निरंतर मेरा चितंन करते हुए और मुझमें ही प्राणों को अर्पण किए हुए, भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव का ज्ञान एक दूसरे को देते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझमें ही निरन्तर रमण करते हैं।” (श्रीमद्भगवद्गीता X:9)।

मुझे यह दिव्य चेतना प्रदान करने वाले मेरे गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर का प्रशिक्षण न मिला होता तो लोगों की सहायता करने और इस कार्य को खड़ा करने और कभी-कभी लोगों से सहयोग के स्थान पर थप्पड़ खाने के इस क्रम में मैं बरसों पहले निराश हो गया होता।

सभी शास्त्र कहते हैं : ‘‘सबसे पहले ईश्वर के साम्राज्य को ढूँढो।” (मैथ्यू  6:33, बाइबिल)। परन्तु देखिए कैसे लोग चर्च में जो आध्‍यात्मिक विचार सुनते-पढ़ते हैं उन्हें अपने दैनिक जीवन से अलग कर देते हैं। जब आप सत्य के सिद्धान्तों का अभ्‍यास करेंगे और उन्हें आचरण में उतारेंगे तब आप सभी आध्‍यात्मिक, मानसिक और शारीरिक नियमों की व्यावहारिकता को समझेंगे।

जब आप शास्‍त्रों को केवल ऊपर-ऊपर से पढ़ते हैं, तब आपको उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। परन्तु जब आप उन सत्यों को एकाग्रता के साथ पढ़ते हैं और सचमुच उनमें विश्वास करते हैं तब वे सत्य आपके लिए जीवित हो उठेंगे, आपके जीवन में प्रदर्शित होंगे। आप में विश्वास करने की इच्‍छा हो सकती है; यहाँ तक कि आप सोचते भी होंगे आप विश्वास करते हैं; परन्तु यदि आप सचमुच विश्वास करेंगे, तो परिणाम तत्क्षण होगा।

विश्वास की अनेक श्रेणियाँ होती हैं। कुछ लोग बिल्कुल ही विश्वास नहीं करते। कुछ विश्वास करना चाहते हैं, अन्य कुछ थोड़ा-सा विश्वास करते हैं, और इनके अलावा कुछ तब तक विश्वास करते हैं जब तक उनके विश्वास की परीक्षा नहीं ली जाती। जब तक हमारे मत खण्डित नहीं किए जाते तब तक हम अपने मत पर दृढ़ रहते हैं; जब उनका खण्डन कर दिया जाता है तब हम संभ्रम में पड़ जाते हैं, असुरक्षित अनुभव करने लगते हैं। दृढ़ विश्वास अंतर्ज्ञानात्मक मत का एक रूप है, आत्मा से प्राप्त होनेवाला ज्ञान है जो लाख खण्डन किए जाने पर भी विचलित नहीं होता।

ईश्वर की खोज को प्रथम स्थान देने के शास्त्र-वचन का व्यावहारिक उद्देश्य यह है कि एक बार ईश्वर को प्राप्त कर लेने के बाद आप उसकी शक्ति का प्रयोग उन समस्त वस्तुओं को प्राप्त करने में कर सकते हैं जिन्हें आपकी सहज बुद्धि आपके लिए उचित बताती है। इस नियम में विश्वास रखिए।

ईश्वर के साथ तारतम्य स्थापित करने पर आपको सच्ची सफलता का मार्ग मिल जाएगा — वह सच्ची सफलता जो आध्यात्मिक, मानसिक, नैतिक, तथा भौतिक उपलब्धियों के संतुलन में ही निहित है।

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