श्री दया माता द्वारा “आन्तरिक मार्गदर्शन द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान”

10 मार्च, 2023

निम्नलिखित अंश श्री दया माता द्वारा अंतर्ज्ञान : जीवन के निर्णयों के लिए आत्म-मार्गदर्शन से लिया गया है। श्री दयामाता ने संघमाता और वाईएसएस/एसआरएफ़ के अध्यक्ष के रूप में 1955 से अपने परलोक गमन 2010 तक सेवा की।

परमहंस योगानन्दजी प्रायः इस कहावत को उद्धृत करते थे : “ईश्वर उसकी सहायता करते हैं जो अपनी सहायता स्वयं करता है।”

निर्णय लेते समय, हमारे लिए इससे बेहतर कुछ नहीं होता है कि कोई दैवीय शक्ति हमें बताए कि हमें क्या करना चाहिए। यह इतना आसान होगा; हमें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता यदि हमें पता होता कि हमें हर क्षण परमेश्वर का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा है।

लेकिन यह इतना आसान नहीं है, और इसका कारण यह है : कि हम ईश्वर का ही एक हिस्सा हैं, लेकिन हम इसे नहीं जानते — और हम इसे कभी नहीं जान पाएंगे यदि हम जो कुछ भी करते हैं उसका बोझ ईश्वर पर ही डालते हैं और कहते हैं, “आप मुझे बताएं कि क्या करना है,” जैसे कि हम मूक कठपुतली हैं और ईश्वर कठपुतली चलाने वाले हैं। नहीं, ईश्वर हमसे अपेक्षा करते हैं कि हम उनका मार्गदर्शन माँगते समय उस बुद्धि का उपयोग करें जो उन्होंने हमें दी है।

उच्चतम प्रार्थना

यीशु ने अंतिम प्रार्थना की : “हे प्रभु, तेरी इच्छा पूरी हो।” अब, बहुत से लोग इसका अर्थ यह समझते हैं कि उनसे कोई इच्छा या विचार करने की अपेक्षा नहीं की जाती है, बल्कि बस बैठकर ध्यान किया जाता है, और प्रतीक्षा की जाती है कि ईश्वर उनके माध्यम से कुछ करे। यह गलत है। हम उनके ही स्वरूप में रचे गए हैं।

ईश्वर ने मनुष्य को इतनी बुद्धि दी है जितनी उसने किसी अन्य प्राणी को नहीं दी, और वह हमसे इसका उपयोग करने की अपेक्षा करते हैं। इसलिए परमहंसजी ने हमें प्रार्थना करना सिखाया :

“हे परमपिता! मैं तर्क करूंगा, मैं इच्छाशक्ति का प्रयोग करूँगा, मैं कार्यरत होऊँगा; परन्तु आप मेरे तर्क, इच्छाशक्ति, तथा कार्य को उचित दिशा की ओर निर्देशित करें जो मुझे करना चाहिए।”

हम आश्रम में निष्ठापूर्वक इसका अभ्यास करते हैं। हमारी कार्य से सम्बंधित बैठक में, पहले हम कुछ मिनटों के लिए ध्यान करते हैं और फिर यह प्रार्थना करते हैं। उसके बाद ही हम विचार-विमर्श करते हैं और निर्णय लेते हैं।

इसलिए आराम से बैठकर ईश्वर से यह अपेक्षा न करें कि आवश्यक कार्यों को वे आरम्भ करेंगे। तर्क, इच्छा और क्रिया के सिद्धांतों को लागू करते हुए, जो सबसे अच्छा मार्ग प्रतीत होता है उसका अनुसरण करें।

अपनी इच्छा और बुद्धि का उपयोग करते हुए शुद्ध अन्तःकरण से कार्य करें, और साथ ही लगातार प्रार्थना करते रहें : “हे ईश्वर, मेरा मार्गदर्शन करें; मुझे आप अपनी इच्छा का अनुसरण करने दें । केवल आपकी ही इच्छा पूर्ण हो।”

ऐसा करने से, आप उनके मार्गदर्शन के प्रति अपने मन को ग्रहणशील रखते हैं। तब आप पायेंगे कि आप अचानक स्पष्ट रूप से समझ रहे हैं, “नहीं, मुझे अब इस दिशा में जाना चाहिए।” ईश्वर आपको मार्ग दिखाते हैं।

लेकिन याद रखें, ईश्वर से मार्गदर्शन करने के लिए कहते समय, आपका दिमाग कभी भी बंद नहीं होना चाहिए; इसे हमेशा खुला और ग्रहणशील रहने दें। ईश्वर उसी की सहायता करते हैं जो अपनी सहायता स्वयं करता है। यह उक्ति काम करती है, लेकिन पहल और प्रयास हमें ही करना होगा।

ईश्वर की सेवा करने और उनकी इच्छा का पालन करने के लिए आपको किसी आश्रम में रहने की आवश्यकता नहीं है। इस क्षण भी हममें से हर कोई वहीं है जहाँ ईश्वर और हमारे पिछले कर्मों ने हमें रखा है। यदि आप अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं, तो ध्यान करें और ईश्वर से मार्गदर्शन मांगें। लेकिन ऐसा करते समय, अपने ईश्वर प्रदत्त विवेक का प्रयोग करें। अपने जीवन और भविष्य के संबंध में आपके पास उपलब्ध विकल्पों का विश्लेषण करें।

विवेक और अंतर्ज्ञान : आंतरिक दिव्य वाणी

हमारी आंतरिक दिव्य वाणी हमारी सभी समस्याओं को हल करने में हमारी सहायता करेगी। अंतरात्मा की वाणी प्रत्येक मनुष्य में दिव्य मार्गदर्शन का एक ईश्वर प्रदत्त साधन है।

लेकिन कई लोग इसे सुन नहीं पाते हैं क्योंकि एक या अनगिनत जन्मों के दौरान उन्होंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। फलस्वरूप, वह वाणी शांत हो जाती है, या अत्यंत अस्पष्ट हो जाती है। लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति अपने जीवन में सही व्यवहार का परिपालन करना प्रारम्भ करता है, आंतरिक फुसफुसाहट फिर से दृढ़ होती जाती है।

अंतरात्मा के अर्ध-अंतर्ज्ञान से परे शुद्ध अंतर्ज्ञान है, आत्मा की सत्य की प्रत्यक्ष धारणा — अचूक दिव्य वाणी।

हम सभी अंतर्ज्ञान से संपन्न हैं। हमारे पास पाँच भौतिक इंद्रियाँ हैं, और एक छठी इंद्रिय भी है — सर्वज्ञ अंतर्ज्ञान। हम इस संसार से पांच भौतिक इंद्रियों के माध्यम से जुड़े हुए हैं : हम स्पर्श करते हैं, सुनते हैं, सूंघते हैं, स्वाद लेते हैं और देखते हैं। अधिकांश लोगों में छठी इंद्रिय, अंतर्ज्ञान अनुभूति, उपयोग के अभाव में अविकसित रह जाती है।

बचपन से ही आंखों पर पट्टी बंधी है और सालों बाद जब वह पट्टी हटी तो सब कुछ नीरस नज़र आएगा। जैसे आप हाथ को गतिहीन रखें तो उपयोग न होने के कारण यह ठीक से विकसित नहीं होगा। इसी तरह, उपयोग की कमी के कारण, अंतर्ज्ञान बहुतों में कार्य नहीं करता है।

ध्यान से अंतर्ज्ञान की शक्ति का विकास होता है

लेकिन अंतर्ज्ञान विकसित करने का एक तरीका है। जब तक हम शरीर और मन को शांत नहीं करते तब तक छठी इंद्रिय काम नहीं कर सकती। अतः अंतर्ज्ञान विकसित करने में पहला कदम ध्यान है, आंतरिक शांति की स्थिति में प्रवेश करना।

आप जितनी गहराई से ध्यान करेंगे और फिर किसी समस्या पर अपना मन लगाएंगे, उतनी ही आपकी सहज शक्ति उस समस्या को हल करने में स्वयं को अभिव्यक्त करेगी। वह शक्ति धीरे-धीरे विकसित होती है, तुरन्त नहीं; जिस तरह एक मांसपेशी या अंग व्यायाम से धीरे-धीरे मजबूत होता है — यह रातों-रात नहीं होता है।…

यदि आप ध्यान के दैनिक अभ्यास को प्रारम्भ करने या सुदृढ़ बनाने के बारे में अधिक जानना चाहते हैं — नीरवता और शांति बनाने के लिए जहाँ आपकी चेतना में “अंतर्ज्ञान की छठी इंद्रिय” तेज़ी से प्रकट हो सकती है, जिससे कि इसे अधिक से अधिक आप अपने जीवन में उपयोग में ला सकते हैं — निर्देशित और सामूहिक ध्यान इन दोनों का अनुभव करने के लिए कृपया नीचे दिए गए लिंक का अनुसरण करें।

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