स्वामी चिदानन्द गिरि द्वारा “वास्तविक ध्यान और मानवता की आशा”

January 10, 2023

यह योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अध्यक्ष और आध्यात्मिक प्रमुख श्री श्री स्वामी चिदानन्द गिरि द्वारा “भौतिक जगत् में रहते हुए भी अपने दिव्य संबंध को बनाए रखना” विषय पर दिए गए प्रवचन से उद्धृत एक अंश है। वाईएसएस द्वारा मुंबई में आयोजित तीन दिवसीय कार्यक्रम के अंतिम दिन 10 नवम्बर, 2019 को दिया गया पूरा प्रवचन हमारे यूट्यूब चैनल पर  देखा जा सकता है।

इस उद्धृत अंश के आरम्भ में, स्वामी चिदानन्दजी आध्यात्मिक बंधन और वास्तविक दैवी मित्रता पर टिप्पणी करते हैं, जो तब होती है जब साधक मुंबई में आयोजित कार्यक्रम जैसे कार्यक्रमों के लिए एक साथ जुड़ते हैं, और विशेष रूप से जब वे एक साथ गहन ध्यान करते हैं, जैसा कि उन्होंने स्वामीजी के प्रवचन से एक दिन पहले किया था।

इन छोटे कार्यक्रमों के अन्त में मैं सदैव आश्चर्य के साथ अनुभव करता हूँ कि हमारे मध्य निकटता कितनी अधिक बढ़ गयी है। यहाँ आने से पूर्व मैं आपमें से अनेक लोगों से भौतिक स्तर पर कभी नहीं मिला था — यह मेरी पहली मुम्बई यात्रा है — और फिर भी, इन तीन दिनों में, कोई भी यह अनुभव किए बिना नहीं रह सकता है कि दिव्य मैत्री का एक मधुर संबंध स्थापित हो गया है।

मैं ऐसा ही अनुभव करता हूँ; और मेरे विचार में यह संबंध ध्यान के उन तीन घण्टों में सबसे अधिक प्रभावशाली ढंग से स्थापित हुआ था, जो हमने कल एक साथ मिलकर व्यतीत किए थे — आध्यात्मिक अनुभव के, आध्यात्मिक चेतना के उन ईश्वरीय स्वास्थ्यवर्धक स्रोतों में गहन और गहनतर डुबकी लगाकर।

जब हम एक साथ ध्यान करते हैं, तब हम अपनी बुद्धि अथवा अपनी भावनाओं की तुलना में अत्यधिक गहन स्तर पर, एक आध्यात्मिक संबंध स्थापित करते हैं; और इसीलिए मैं कहता हूँ कि यद्यपि, तुलनात्मक दृष्टि से, हमने बाह्य रूप से केवल थोड़ा सा समय ही एक साथ व्यतीत किया है, तथापि उस संबंध की गुणवत्ता, गहनता, और तीव्रता ने आंतरिक रूप से हमें दिव्य मैत्री के एक प्रत्यक्ष और अत्यन्त यथार्थ बन्धन में संगठित कर दिया है। आपके साथ व्यतीत किए इन दिनों को मैं कभी भी नहीं भूलूँगा।

ध्यान के द्वारा व्यक्तिगत आत्माओं के बीच आध्यात्मिक संबंधों का निर्माण कैसे होता है, इस विषय में एक अत्यंत दिलचस्प बात है। क्योंकि जब हम अपने अन्तरतम् में प्रवेश करते हैं और अपनी आत्मा की सचेतनता के साथ सम्पर्क स्थापित करते हैं, और जब हम ऐसा अन्य आत्माओं की संगति में करते हैं — जहाँ, कम से कम थोड़े समय के लिए ही, हम चेतना के उच्चतर आत्मिक स्तर से कार्य कर रहे होते हैं — तो हम स्वतः ही प्रेम का विकास करते हैं; हम स्वतः ही आदर और सराहना का विकास करते हैं, और जो गहन होकर मधुरतम दिव्य मैत्री में परिवर्तित हो जाते हैं। अब यह जानते हैं कि, विशेष रूप से वर्तमान समय में यह क्यों महत्त्वपूर्ण है?

“मानवता की आशा”

अपने चारों ओर आज के संसार को देखें। इतना अधिक संघर्ष है; इतने भिन्न-भिन्न रुचियाँ, मान्यताएँ और उद्देश्य हैं। इस संसार में लोगों के साथ मिलजुल कर रहना सरल नहीं है। हमारी ऐसी धारणा है कि आध्यात्मिक प्रगति के द्वारा, अथवा मानव जाति के उत्तरोत्तर विकास के द्वारा, किसी समय हम भाई और बहनों की भाँति एक साथ मिलकर रहने में सक्षम होंगे। यह वैदिक शास्त्रों में वर्णित “वसुधैव कुटुम्बकम्” का एक प्राचीन आदर्श है।

हम सब ईश्वर की सन्तानें हैं, और हमें उसी भावना के साथ सद्भावनापूर्वक और शान्तिपूर्वक रहना चाहिए। परन्तु, मुझे पूर्ण विश्वास है — और हमारे गुरुदेव ने बार-बार यह कहा है — कि यह तब तक एक अप्राप्य आदर्श ही बना रहेगा जब तक कि गहन एवं दैनिक ध्यान सम्पूर्ण समाज में व्याप्त नहीं हो जाता।

जब अधिकाधिक लोग ध्यान के द्वारा अपने अन्तरतम् में ईश्वर का अनुभव करने का प्रयास करेंगे, केवल तभी हम सभी अन्य आत्माओं में उस दिव्य स्फुरण, उस दिव्य तत्त्व, उस ईश्वरीय विद्यमानता का अनुभव करने की क्षमता प्राप्त कर सकेंगे। “वसुधैव कुटुम्बकम्” का और मनुष्य के भ्रातृत्व का यही आधार है। विश्व शान्ति की आशा का एकमात्र यही स्थायी और वास्तविक आधार है।

आपमें से प्रत्येक व्यक्ति ने ध्यान की आदत का विकास करने का संकल्प किया है, सच्चाई से ध्यान करने की दिनचर्या — अर्थात् न केवल मौन में बैठकर मन को इधर-उधर भटकने देना, अपितु योग ध्यान की इन उच्च प्रविधियों का अभ्यास करते हुए गहनता, अनुशासन, और एकाग्रता के साथ ध्यान करने की दिनचर्या — बनाने का संकल्प किया है।

इस मार्ग तथा अन्य मार्गों का अनुसरण करने वाले आपमें से वे लोग जो इस प्रकार की दिव्य चेतना में गहरी डुबकी लगाने का आंतरिक प्रयास करते हैं — आप मानवता की आशा हैं।

अब, ये दिन एक साथ व्यतीत करने के पश्चात्, आत्माओं के रूप में हमने वह मधुर संबंध स्थापित कर लिया है; हम सब के अन्दर जो आध्यात्मिक तत्त्व विद्यमान है, सम्भवतः हमारे लिए उस तत्त्व की धारणा और अनुभव का नवीकरण हो गया है। और फिर भी, यद्यपि हम अपनी आत्माओं के स्तर पर अनन्त, अनश्वर, पूर्ण, और दिव्य हैं, तथापि हम इन नश्वर भौतिक शरीरों में निवास करते हैं और ये भौतिक शरीर एक भौतिक जगत् में रहते हैं।

यह हमारी चुनौती है : ध्यान और आध्यात्मिक विकास में हम अपने जिस दिव्य स्वरूप का अनुभव करते हैं, उसे कैसे ग्रहण करें, और उसे कैसे बनाए रखें; यहाँ तक कि भौतिक जगत् में रहते हुए भी उस सम्पर्क को कैसे बनाए रखें।

इस प्रवचन का वीडियो हमारे यूट्यूब चैनल पर भी उपलब्ध है

शेयर करें