“वेणु-मुरली” गुरुचरण द्वारा

10 मार्च 2023

भारत की एक पारंपरिक कहानी का पुनर्कथन, मूल रूप से 2018 की योगदा सत्संग पत्रिका में प्रकाशित।

एक दिन, वृंदावन के पास वनप्रदेश में खुले मैदान में एक कदंब वृक्ष छाया के नीचे बैठ कर, श्रीकृष्ण ने अपनी मुरली को बजाना शुरू कर दिया। पत्तियों से स्वर्णिम प्रकाश छन कर आ रहा था। मयूर अपना नृत्य बीच में ही रोक कर, सिर घुमा कर उस सम्मोहक धुन को सुनने लगे। ऊपर बैठे पक्षियों का कलरव मौन में बदल गया। हिरण अपने कानों को खड़े कर झाड़ियों से झाँकने लगे। एक गाय आकर भगवान् के चरणों में बैठ गयी। यहाँ तक कि पास बहती एक जलधारा भी मानो शान्त हो गई। सारी प्रकृति उस फैलते हुए प्रेम में मग्न होकर झूमती हुई प्रतीत हुई।

गोपियों ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘गोपाल! एक समस्या है। आप इसका कारण हैं। तो आपको ही इसे हमारे लिए हल करना होगा।’

श्रीकृष्ण ने बाँसुरी बजाना बंद कर दिया और प्रश्नसूचक दृष्टि से उनकी ओर देखा।

गोपियों में मुख्य, राधा ने कहा, ‘क्या हम आपके भक्त नहीं हैं? क्या हम निरंतर आपके बारे में नहीं सोचते हैं, आपके लिए तड़पते नहीं हैं, और क्या आपके साथ लंबे समय तक रहने की लालसा नहीं रखते हैं?’

‘हाँ?’

‘लेकिन, प्रतिदिन शाम के समय, हम अपने द्वार से मुश्किल से आपकी एक झलक पाते हैं जब आप अन्य ग्वालों के साथ गांव में घर लौटते हैं। भले ही हम शीघ्रता से बाहर निकल कर पूरी शाम आपके साथ रहना चाहते हों, लेकिन हमें अपने परिवार की ज़िम्मेदारियाँ भी पूरी करनी होती हैं। हमारे घरेलू कर्त्तव्य हमें पीछे खींचते हैं। ठीक है कि पवित्र पूजा दिनों और त्यौहारों पर, हम आपके साथ सामान्य से अधिक समय बिता पाते हैं। लेकिन यह पर्याप्त नहीं होता। हमारी आत्मायें आपकी निरंतर उपस्थिति के बिना शुष्क रहती हैं।’

श्रीकृष्ण ने मुस्कुरा कर अपनी मुरली उठायी और उनसे बैठने को कहा। उनकी धुन ने उन सभी के हृदयों को आनन्द से भर दिया और उनकी व्यग्रता कम कर दी।

गहन दिव्यानुभूति में, वे भूल गईं कि उनके कोई शरीर, परिवार, और ज़िम्मेदारियाँ भी थीं। वे भूल गईं कि अपने प्रिय भगवान् के साथ इस सर्वोत्तम क्षण के परे भी कोई जीवन था।

जब अंतिम स्वर गहराती गोधूलि बेला के मौन में सिमट गए, और उसके बाद का एक मिनट भी अनंत काल की तरह प्रतीत हुआ, अपने जाने का समय निकट देखकर गोपियों ने दुःख में उच्छ्वास छोड़ा।

उन्होंने कहा, ‘हम आपकी मुरली से ईर्ष्या रखते हैं। आप कभी इससे अलग नहीं होते। जहाँ भी जाते हैं, इसे अपने कर-कमलों में थामे रहते हैं। आप इसे अपने अधरों से लगा कर हृदय को छू लेने वाली धुनें बजाते हैं। यहाँ तक कि आप इसके साथ सोने के लिए भी जाते हैं, और इसे अपनी छाती पर रखते हैं। लेकिन हमें आपसे अलग क्यों होना पड़ता है जबकि यह मुरली कभी आपसे अलग नहीं होती?’

भगवान् श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, ‘मैं इसका कारण बताता हूँ। मैं तुम्हें अपनी मुरली की कहानी बताता हूँ।’

गोपियाँ पूरी तरह चौकस हो उठीं। यहाँ अंततः रहस्य खुलने वाला था!

‘एक दिन मैं बाँस के पेड़ के पास गया और कहा, ‘क्या मैं तुमसे जे मांगूँ वह तुम मुझे दोगे?’ बाँस ने उत्तर दिया, ‘अवश्य, आपकी इच्छा मेरे लिए आदेश है। आप और ब्रह्माण्ड के नियंता एक ही हैं। आपकी सेवा मेरा सौभाग्य है।’

‘मैंने कहा, ‘यह कष्टदायी होगा। एक विशेष उद्देश्य के लिए मुझे तुम्हें काट डालना होगा।’

‘क्या इस विशेष उद्देश्य को पूरा करने का कोई और तरीका नहीं है?’ बाँस ने पूछा।

‘नहीं, मैंने कहा, और बाँस ने स्वयं को काटे जाने की स्वीकृति दे दी। मैंने झटके से वार किया और वह पीड़ा से कराह उठा। मैं वार करता गया जब तक कि वह अपनी जड़ों से अलग नहीं हो गया। फिर मैंने एक चाकू से इसे आकार दिया और एक पैने उपकरण से भीतर से खोखला बनाया। इसके बाद, मैंने इसमें कई छेद किए। फिर मैंने इसके सभी खुरदुरे किनारों को घिसा बाँस थरथराया और काँप उठा, परन्तु कभी शिकायत नहीं की। मेरे हाथों में आत्मसमर्पण करके, यह मेरे संगीत के लिए एक आदर्श साधन बन गया। इसकी सहायता से, अब मैं सम्पूर्ण जगत् को माया-भ्रम की नींद से जगा रहा हूँ। मेरे उद्देश्य को पूरा करने में सहायता करने से, यह मुझे प्रिय हो गया है। इसलिए, मैं कभी इसे खुद से अलग नहीं करूँगा।’

गोपियों को अब समझ में आ गया था : विनम्रता में अपने अहंकार का त्याग करके, और भगवान् की इच्छा के लिए अपने जीवन के समर्पण के द्वारा मुरली भगवान् श्रीकृष्ण से अभिन्न हो गई थी। अतः उन्हें भी दिव्य वाद्य यंत्र बनना चाहिए, जिससे भगवान् अपनी मोहक धुनों को उनके माध्यम से निर्दोष तरीके से बजा सकें। तब उन्हें भी वियोग का अनुभव नहीं होगा।

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