परमहंस योगानन्दजी द्वारा “परमात्मा का सर्व-संतोषदायक नित्य-नवीन आनंद”।

परमहंस योगानन्दजी द्वारा दिए गए व्याख्यान “इच्छानुसार प्रसन्न रहने की विधि” से उद्धृत। पूरा प्रवचन मानव की निरन्तर खोज से लिया गया है, जो वाईएसएस द्वारा प्रकाशित परमहंसजी के संकलित प्रवचन एवं आलेख के पहले भाग से है।

जब आप व्यक्तियों के चेहरों को देखते हैं, तो आप प्रायः उनकी अभिव्यक्तियों को उनकी मानसिक अवस्था के अनुरूप मूलतः चार रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं : मुस्कराते चेहरे, जो बाहरी और आन्तरिक प्रसन्नता जताते हैं; उदास चेहरे, उदासी व्यक्त करते हुए; नीरस, अप्रसन्न चेहरे, आन्तरिक उकताहट को प्रकट करते हुए; और शान्त चेहरे, आन्तरिक शान्ति को प्रदर्शित करते हुए।

एक सन्तुष्ट हुई इच्छा सुख उत्पन्न करती है। एक अपूर्ण लालसा दुःख उत्पन्न करती है। सुख एवं दुःख के मानसिक शिखरों के मध्य उदासी की खाइयाँ हैं। जब सुख एवं दुःख की ऊँची तरंगें और उदासी के गड्ढे तटस्थ हो जाते हैं, तो शान्ति की अवस्था प्रकट हो जाती है।

शान्ति की अवस्था से परे आनन्द की एक नित्य-नवीन अवस्था है, जिसे व्यक्ति अपने अन्तर में पा सकता है और अपनी आत्मा की सच्ची स्वाभाविक अवस्था के रूप में पहचान कर सकता है। यह आनन्द उल्लासपूर्ण सुख और अत्यधिक दुःख और उदासी के गडढों की उत्तेजित मानसिक तरंगों के नीचे दबा हुआ है। जब मानसिक सागर से ये तरंगें लुप्त हो जाती हैं तो शान्ति की सौम्य अवस्था का अनुभव होता है। शान्ति के इस स्थिर सागर में नित्य-नवीन आनन्द प्रतिबिम्बित होता है।

प्रतिक्रियाओं का आधार

इस संसार में अधिकाँश लोग उत्तेजित सुख या दुःख की तरंगों पर हिचकोले खा रहे हैं और इनकी अनुपस्थिति में वे ऊब जाते हैं। जब आप दिन में दूसरों के चेहरों का — घर पर, कार्यालय में, गलियों में अथवा समूहों में — निरीक्षण करते हैं, तो आप देख सकते हैं कि केवल कुछ ही लोग हैं जिनसे शान्ति झलकती है।

जब आप कोई प्रसन्न चेहरा देखें और उस व्यक्ति से पूछें “आप किस कारण प्रसन्न हैं?” शायद वह इस प्रकार उत्तर दे, “मेरी आय में बढ़ोत्तरी हो गई है” अथवा “मैं एक दिलचस्प व्यक्ति से मिला।” प्रसन्नता के पीछे एक इच्छा की पूर्ति निहित है।

जब आप किसी बेचैन चेहरे को देखते हैं और सहानुभूतिपूर्वक पूछते हैं, तो वह व्यक्ति यह उत्तर दे सकता है, “मैं एक बीमार आदमी हूँ” अथवा “मेरा बटुआ खो गया है।” उसकी स्वास्थ्य (अथवा उसके खोए हुए धन) को पुनः प्राप्त करने की इच्छा खण्डित हुई है।

जब आप एक ऐसा चेहरा देखते हैं जिस पर भावशून्य तटस्थता झलकती है, और आप उससे पूछते हैं, “क्या बात है? क्‍या तुम किसी कारण से अप्रसन्न हो?” वह उसी क्षण अस्वीकार कर देगा। परन्तु यदि आप उस पर दबाव डालेंगे, “क्या तुम प्रसन्न हो?” वह उत्तर देगा, “ओह नहीं, मैं बस ऊब गया हूँ।”

नकारात्मक और सकारात्मक शान्ति

आपकी एक ऐसे व्यक्ति से भेंट हो सकती है, जो सुसंस्कृत हो, समृद्ध हो, एक बहुत बड़ी जागीर में रहता हो, देखने में स्वस्थ और गोलमटोल हो, और न तो अत्यधिक प्रसन्न हो, न उदास, न उकताया हुआ। ऐसी अवस्था में आप कह सकते हैं कि वह शान्त है। परन्तु जब ऐसा सुखी सुस्थित व्यक्ति इस तरह की अत्यधिक शान्ति का भरपूर आनंद ले चुकता है — जिसके अनुभव का कम लोगों को ही सौभाग्य प्राप्त होता है, वह मन में सोचता है, “बहुत शान्ति भोग ली मैंने — अब मुझे कुछ उत्तेजना और बदलाव की आवश्यकता है।” अथवा वह अपने किसी मित्र से कह सकता है, “कृपया मेरे सिर पर ज़रा सा आघात करो जिससे मुझे लगे कि मैं जीवित हूँ।”

शान्ति की नकारात्मक अवस्था मन की तीन अवस्थाओं प्रसन्नता, दुःख और उकताहट की अनुपस्थिति से उत्पन्न होती है। बिना उत्तेजना अथवा परिवर्तन के लंबी नकारात्मक शान्ति, उबाऊ और अरुचिकर बन जाती है। लेकिन लम्बे समय से चल रही प्रसन्नता, दुःख और उदासी की अवस्थाओं के पश्चात्‌, नकारात्मक शान्ति आनन्ददायक हो जाती है। इसी कारण, योगी जन मानसिक शान्ति को प्राप्त करने के लिए एकाग्रता द्वारा विचारों की तरंगों को शान्त करने का सुझाव देते हैं।

जब एक बार योगी विचारों की तरंगों को शान्त कर देता है, तो वह शान्त स्थिर झील के अन्दर नीचे देखना आरम्भ करता है, और वहाँ शान्ति की सकारात्मक अवस्था — आत्मा के नित्य-नवीन आनन्द को पाता है।

मैं न्यूयार्क में एक बहुत धनी व्यक्ति से मिला। अपने जीवन के विषय में बताते समय, वह धीरे से बोला, “मैं ऊबने की सीमा तक धनी, और बहुत ही अधिक स्वस्थ हूँ।” और उसके बात समाप्त करने से पहले ही मैंने जल्दी से कहा, “परन्तु आप बहुत ही अधिक प्रसन्न नहीं हैं। मैं आपको सिखा सकता हूँ कि किस प्रकार सदा नित्य-नवीन प्रसन्न व्यक्ति बनने में आप निरंतर रुचि रख सकते हैं।”

वह मेरा शिष्य बन गया। क्रियायोग के अभ्यास के द्वारा, सन्तुलित जीवन बिताते हुए और सदा अन्तर में ईश्वर के प्रति समर्पित रहते हुए, और सदा उमड़ते हुए नित्य-नवीन आनन्द के साथ उसने परिपक्व वृद्ध आयु तक जीवन जीया।

अपनी मृत्युशय्या पर उसने अपनी पत्नी से कहा, “मुझे तुम्हारे लिए अफसोस है — कि तुम्हें मुझे जाते हुए देखना पड़ रहा है — परन्तु मैं जगत्‌ के अपने प्रियतम से मिलने पर बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी प्रसन्नता के लिए खुशी मनाओ, और दुःखी होकर स्वार्थी मत बनो। यदि तुम जान सकती कि अपने प्रियत्तम प्रभु से मिलने के लिए जाने पर मैं कितना प्रसन्न हूँ, तो तुम दुःखी नहीं होतीं, यह जानकर प्रसन्न रहो कि किसी दिन शाश्वत आनन्द के उत्सव में तुम मुझसे मिल जाओगी।”

गहन परमानन्द का पान करें

अब उन चेहरों का अवलोकन करने के बाद जो सुख, दुःख, उदासी, अथवा अस्थायी शान्ति दर्शाते हैं, क्या आप परमात्मा के संसर्गीय नित्य-नवीन आनन्द को अपने चेहरे पर प्रतिबिम्बित नहीं करना चाहेंगे?

ऐसा कर सकने के लिए आपको गहन ध्यान के पात्र से तब तक प्रभु के आनन्द के अमृत का पान करते रहना चाहिए जब तक कि आप आनन्द के व्यसनी न बन जाएँ, और निद्रा में, स्वप्न में, जाग्रत अवस्था में और जीवन की समस्त परिस्थितियों में आनन्द को व्यक्त करें, अन्यथा वे आपको अत्यधिक प्रसन्न या अथाह दुःखी बना देती हैं अथवा उदासी में या अस्थायी नकारात्मक शान्ति में संतृषप्त कर देती हैं।

आपकी हँसी सच्चाई की कन्दराओं से प्रतिध्वनित होनी चाहिए। आपका आनन्द आपकी आत्मानुभूति के झरने से बहना चाहिए। आपकी मुस्कान आपसे मिलने वाली सभी आत्माओं में और सम्पूर्ण जगत्‌ में फैल जानी चाहिए। आपकी हर दृष्टि से आपकी आनन्दित आत्मा प्रतिबिम्बित होनी चाहिए और इसका प्रभाव विषाद-ग्रस्त व्यक्तियों पर भी फैल जाना चाहिए।

यह कल्पना करना बन्द कर दें कि आप केवल एक साधारण नश्वर मानव हैं, जो निरन्तर मानसिक उतार-चढ़ाव को झेल रहा है। चाहे कुछ भी हो सदा स्मरण रखें कि आप परमात्मा के सच्चे प्रतिबिम्ब में बने हैं।

सभी वस्तुओं में जीवन्त आनन्द — ब्रह्माण्डीय परमानन्द का फ़व्वारा — अपनी फुहार आप पर अवश्य डाले और आपके विचारों से, आपके सम्पूर्ण अस्तित्व की प्रत्येक कोशिका (cell) एवं ऊतक (tissue) से निरन्तर आनन्द टपकाए।

स्मरण रखें, गहन स्वप्नरहित निद्रा की अवस्था में, जो कि अचेतन आत्मबोध है, आप पूरे समय प्रसन्न रहते हैं। उसी तरह दिन के समय, मानसिक परीक्षणों और उतार-चढ़ावों रूपी दुःस्वप्न द्वारा विचलित होने की चिंता किए बिना, आपको कल-कल करती नदी के नित्य निर्मल उछलते जल की भाँति आन्तरिक रूप से नित्य-नवीन रूप से आनन्दित रहने के लिए हर समय प्रयत्न करते रहना चाहिए।

जिस प्रकार कोई व्यक्ति लगातार शराब का सेवन करके हर समय नशे में रह सकता है, उसी प्रकार ध्यान के उपरान्त अपनी आत्मा के आनन्द का निरन्तर बोध करने से आप भी सच्ची प्रसन्नता के नशे में रह सकते हैं।

जब आप ध्यान के उपरान्त की आनन्दमयी अवस्था को निरन्तर अनुभव कर सकते हैं, तो आप समाधि की अवस्था में रहेंगे और आप अपनी आत्मा के नित्य-नवीन आनन्द के साथ एक हो जाएँगे, और जो कोई भी आपके आस-पास होगा वह भी आप जैसा हो जाएगा — जिस प्रकार चन्दन की लकड़ी का निरन्तर स्पर्श हाथों को सुगन्धित बना देता है।

“जिनके विचार पूर्ण रूप से मुझ में लगे हैं, जिनका जीवन मुझे समर्पित है, भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में एक-दूसरे को मेरे प्रभाव को बताते हुए जो सदा मेरा ही गुण-गान करते हैं, वे मेरे भक्त सदा सन्तुष्ट और आनन्दित रहते हैं।” (भगवदगीता V:9)

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