“परमहंस योगानन्द और भारत का आध्यात्मिक प्रकाश” मृणालिनी माता द्वारा

8 फरवरी, 2023

यह श्री मृणालिनी माता द्वारा दिए गए प्रवचन “योग साधना जो ईश्वर-प्रेम तथा परमानन्द प्रदान करती है” का एक छोटा सा अंश है, जिन्होंने 2011 से 2017 में अपनी शरीर त्याग तक वाईएसएस/एसआरएफ़ के चौथे अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवा प्रदान की। पूरे प्रवचन का ऑडियो वाईएसएस ब्लॉग और इस पेज के नीचे से प्राप्त किया जा सकता है। व्याख्यान का पूर्ण मुद्रित संस्करण हमारे योगदा सत्संग पत्रिका पृष्ठ पर सैम्पल लेखों में से एक के रूप में पढ़ा जा सकता है।

आप हमारी वेबसाइट पर भारत के योग की प्राचीन शिक्षाओं को आधुनिक दुनिया में लाने वाले परमहंस योगानन्द के जीवन की महान् और अद्भुत यात्रा के बारे में अधिक जान सकते हैं।

एक ओर जहाँ गुरुदेव ने पश्चिम में अपना कार्य पूर्ण करने के लिए अपनी मातृभूमि छोड़ी, वहीं उनके हृदय और मन ने कभी भी उनका भारत नहीं छोड़ा।

एक बार भारत से किसीने गुरुदेव को लिखा : “आपने निश्चित रूप से अपने भारत को भुला दिया है। क्योंकि आप इससे इतनी दूर है, आप निश्चित ही अपनी मातृभूमि को भूल गए होंगे।” परन्तु गुरुदेव ने उत्तर लिखा : “ऐसा कभी नहीं हो सकता। क्योंकि मैं भारत से प्रेम करता हूँ, और भारत के सन्देश तथा ईश्वर-प्रेम का सारे विश्व में प्रसार करने के लिए यहाँ, इस देश में रात-दिन कार्य कर रहा हूँ। किसी भी दिन एक पल के लिए भी वह मेरे हृदय और मन से बाहर नहीं होता।”

गुरुदेव बस 1935 में ही, एक साल के लिए भारत आये थे। उसके बाद वे हमेशा ही यहाँ वापिस आने की योजना बनाते रहे; लेकिन वे अत्यधिक व्यस्त थे, उनका कार्य इतना अधिक बढ़ रहा था कि जगन्माता ने उन्हें कभी यहाँ आने ही नहीं दिया। फिर भी उन्होंने यह भविष्यवाणी की थी, “मैंने भारत के सन्देश को दुनिया की दूसरी ओर पहुँचाया है, और भारत मुझे जानेगा।”

उनके गुरु, श्रीयुक्तेश्वरजी ने भी कहा था, “भारत में मेरा सन्देश भारत से नहीं फैलेगा; यह बाहर से फैलकर भारत में वापिस आएगा ।”

गुरुजी एवं श्रीयुक्तेश्वरजी दोनों ने एक ही बात कही थी, और बाबाजी ने भी परमहंस योगानन्दजी के बारे में श्रीयुक्तेश्वरजी से यही कहा था, “मैं तुम्हारे पास इस चेले को भेज रहा हूँ कि तुम इसे पूरे विश्व में योग का सन्देश फैलाने के लिए प्रशिक्षित करो, क्योंकि ईश्वर चाहते हैं कि अब उनका यह विश्व एकजुट हो । और सभी विभाजन समाप्त हो जाएं।”

अतः पूर्व और पश्चिम से यह एकजुटता आनी चाहिए; परन्तु यह शिक्षा, यह प्रकाश यहाँ, भारत में ही सर्वप्रथम प्रज्वलित हुआ और सम्पूर्ण विश्व में फैला। और इसीलिए हम इस पवित्र भूमि का आदर करते हैं।

वह गगन स्नेह भरा,
वट-वृक्ष की मोहक छाया,
पास बहती वह पावन गंगा,
भूल सकता मैं कैसे तुम सब को भला!

लगे मुझे प्यारी वह लहलहाती फसल,
जो उपजे भारत के खेतों में उज्ज्वल,
आह! यह तो स्वर्ग की उपज से है बेहतर,
जिसे उगाते हैं बलवान देवता अमर!

ईश्वर-आदेश से मेरी आत्मा का प्रेम विशाल,
हुआ अवतरित पहले पहल इस धरा पर,
मेरी जन्मभूमी में —
भारत की धूप से नहाई उज्ज्वल माटी पर।

मुझे प्यारी लगे तेरी बयार,
तेरे चन्दा से है मुझे प्यार,
तेरे पर्वतों और सागरों से करूँ मैं प्रेम विशेष;
चाहता हूँ तुझ में ही मेरी जीवन-लीला हो शेष।

सिखाया प्रेम करना तूने ही सबसे पहले,
नभ से, सितारों से, परमेश्वर से, इसीलिए झुकाऊँ सर अपना सबसे पहले, हे भारत, तेरे चरण कमलों में।

सीख ली अब मैंने यह समदृष्टि तुझसे,
प्रेम करना सब देशों से करता हूँ जैसे तुझसे,
नमन करता हूँ तुझे, हे मेरी जन्मभूमि,
मेरे विशाल प्रेम की हे प्यारी जननी।

इस भूमि का इसकी आध्यात्मिक विरासत के लिए आदर कीजिए, क्योंकि यह इस विश्व का आध्यात्मिक प्रकाश है।

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