श्री मृणालिनी माताजी का परामर्श

योगदा सत्संग पत्रिका में पूर्व प्रकाशित

“प्रार्थना की शक्ति”

परमहंस योगानन्दजी ने पूर्वाभास से समझ लिया था कि जैसे-जैसे मानवता अधिक उन्नत युग में प्रवेश करेगी, संसार में उथल-पुथल के अंतराल आएंगे क्योंकि पिछले युग में व्याप्त सीमित सोच को पीछे छोड़ना होगा। उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि हमारा युग उन्नति की ओर अग्रसर होते आध्यात्मिक प्रकाश का युग है जो अंधकार को मिटा देता है। तथापि जब हम इस नश्वर संसार में अपरिहार्य उतार-चढ़ाव का अनुभव करते हैं और सामूहिक बुरे कर्मों के जाल में उलझ कर निर्दोष आत्माओं को कष्ट से घिरा हुआ देखते हैं, तब हमें कितनी असुरक्षा की भावना का अनुभव होता है! ऐसे समय में जब ह्रदय पीड़ा से चित्कार उठता है -“क्यों?” और हमारी मानवीय बुद्धि को कोई संतोषजनक उत्तर प्राप्त नहीं होता, तब हमें अपने सीमित बुद्धि से आगे दिव्य सत्ता की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता पड़ती है, उस सत्ता से जो माया के सभी झंझावातों में हमें सुरक्षा व संरक्षण देती है।

ब्रह्मांड की सभी रचनाएं परमेश्वर के विचार से ही अभिव्यक्त हुई हैं। हम उनकी संतान हैं, और उनकी, सभी कामना पूरी करने वाली, संकल्प शक्ति से अपने विचार व कर्म जोड़कर हम नश्वर असहायता के भ्रम से मुक्त हो जाते हैं और हममें से प्रत्येक के अंदर विद्यमान उस सामर्थ्य की अनुभूति करने लगते हैं जो इस संसार में प्रत्येक को शुभ काम करने के लिए परमेश्वर ने प्रदान की है। प्रार्थना जो आत्मा की सच्ची गहराई से निकलती है, दृढ़ आस्था व विश्वास के साथ और इस बोध के साथ कि परमेश्वर का प्रेम हमारे प्रति बिना किसी शर्त या अनुबंध के प्रवाहित होता है और उसमें परमेश्वर की आरोग्यकारी अनंत शक्ति विद्यमान रहती है। जब हम अंतर्मुखी होकर उनसे संपर्क स्थापित करते हैं, सच्ची भक्तिभाव के साथ अपने हृदय की शुद्ध निष्ठा से प्रार्थना को एकाग्र विचारों की ऊर्जा से संतृप्त करके; तब वह सृजनशील दिव्य चेतना में प्रवेश कर यथार्थ मूर्त रूप ले लेती है। हम जिस शरणागति की संकल्पना कर रहे हैं, वह परमात्मा की सर्वशक्तिमता से और अधिक प्रबल हो जाती है और हमारे व दूसरे लोगों के जीवन में सकारात्मक परिणाम लाने के लिए प्रार्थना में, कामनाओं को मूर्त रूप देने की विशिष्ट क्षमता आ जाती है। “अधिकतर लोग घटनाक्रम को प्राकृतिक एवं अपरिहार्य मानते हैं,” गुरुदेव ने हमसे कहा था, “वे नहीं जानते कि प्रार्थना से कितने मौलिक परिवर्तन लाए जा सकते हैं”। प्रार्थना सबसे अधिक प्रभावशाली तथा तत्काल फल देने वाला मार्ग है जिससे हम जरूरत के समय अपने संसार रूपी परिवार से जुड़ सकते हैं। चेतना की उस अवस्था में जब हम कष्ट देने वाली स्थिति के बारे में जान जाते हैं हमारी पहली प्रतिक्रिया हमेशा प्रार्थना के ही रूप में होनी चाहिए — जो दुख से प्रभावित हैं उन्हें परमेश्वर के सुरक्षा कवच से आवृत करने के लिए। ऐसा करने से हम उनके आशीर्वाद के प्रभाव को अधिक विस्तृत कर देते हैं जिससे मानवीय सहायता में अद्भुत शक्ति का संचार होने लगता है और हम अपने हृदय को परमात्मा की प्रदान की गई शांति एवं आश्वासन से परिपूर्ण पाते हैं।

परमात्मा के साथ अंतःकरण की गहराई में स्थापित किया गया संपर्क संशय व बेचैनी के रूप में व्याप्त वायुमंडलीय विक्षोभ को शांत कर देता है, और दूसरों के लिए हमारी प्रार्थना को अधिक प्रभावोत्पादक बना देता है, जिस प्रकार हमारी निष्ठा का प्रभाव परमात्मा के प्रेम व सत्य के सिद्धांतों के साथ जीवनयापन करने पर होता है। जैसे कि हमारे गुरुदेव हमें याद दिलाते थे-“एक आत्मा की शुद्धता लाखों मनुष्यों के सामूहिक कर्मों को प्रभावशाली रूप से निरस्त कर देती है।” क्योंकि वे यह भी जानते थे कि हमारी व्यक्तिगत प्रार्थना का प्रभाव कितना अधिक बढ़ जाता है जब हम दूसरी मिलते जुलते स्वभाव वाली आत्माओं के साथ मिलकर प्रार्थना करते हैं। गुरुदेव ने विश्वव्यापी प्रार्थना मण्डल की स्थापना विश्वव्यापी समाज की सेवा के अंग के रूप में की थी। मैं आह्वान करती हूँ कि आप सभी अपनी नित्य प्रति की प्रार्थना के द्वारा इस संयुक्त प्रयास में भागीदारी करें, परमात्मा का आशीर्वाद उनकी उन संतानों के लिए प्राप्त करने के उद्देश्य से, जिन्हें विशेष रूप से परमात्मा की कृपा की आवश्यकता है, जैसे कि आश्रम में निवास करने वाले हम सभी प्रतिदिन करते हैं। इस प्रकार प्रार्थना करके प्रत्येक सकारात्मक विचार एवं प्रयास से समझ लीजिए कि आप इस संसार में परमात्मा जो सर्वोच्च आरोग्यदाता एवं सभी की सहायता करने वाले हैं उनके प्रकाश तथा प्रेम को घनीभूत करने में सहायता कर रहे हैं।

“दिन प्रतिदिन के जीवन में क्रियायोग का प्रसाद”

[योगदा सत्संग पत्रिका से उद्धृत]

इस द्वैत तथा सापेक्षता के सिद्धांत पर आधारित संसार में जहाँ हम इतना दुःख, दर्द, कष्ट व उथल पुथल देखते हैं, जीवन को उचित प्रकार से जीने के लिए वैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता है। हमें केवल जीवन में भौतिक समृद्धि लाने व अधिक भौतिक संयत्र निर्मित करने के लिए ही विज्ञान की आवश्यकता नहीं है, बल्कि जीवन के विज्ञान की भी आवश्यकता है। यही वह सूत्र है जिसका मानवता के पास अभी तक अभाव है — जो हमारे वर्तमान संसार में सभी समस्याओं तथा कठिनाइयों का मूल कारण है। और यही वह निधि है जिसे हमारे पूज्य गुरुदेव परमहंस योगानन्दजी अपनी क्रियायोग की शिक्षा के माध्यम से पश्चिमी देशों में लेकर आए।

युग युगान्तर में मानवता को जीवन जीने की कला का विज्ञान बार-बार दिया जाता रहा है। परमात्मा के स्वाभाव में असीमित धैर्य विद्यमान है क्योंकि भला और किस तरह से परमेश्वर जिन्हें हम जगन्माता के रूप में देखते हैं असीमित स्नेह देते रह सकते हैं और अपनी संतानों के अपराध सहन करते जाते हैं, धैर्य पूर्वक हमें याद दिलाते हुए — “यह मेरी सृष्टि है; मैंने इसका सृजन किया है। मैंने इसकी श्रेष्ठ रचना की है, मैंने इसे सौंदर्य से परिपूर्ण बनाया है। मैंने तुम सब का सृजन किया है। मैंने तुम्हें श्रेष्ठ बनाया है, मैंने तुम्हें सुंदर बनाया है। मैंने तुम्हें धर्म शास्त्रों के माध्यम से बताया है, मैंने तुम्हें अशरीरी वाणी से सुनाया है, अवतारों व सन्तों की वाणी और उनके उदाहरण से बार-बार समझाया है कि तुम्हें इस संसार को सुंदर बनाए रखने के लिए क्या करना चाहिए, अपने जीवन को मेरे साथ तादात्मय बनाकर जीने के लिए, जिससे तुम मेरा सौंदर्य, आनंद, शांति तथा वैभव को इस पृथ्वी पर अभिव्यक्त कर सको — जिसका मैंने सृजन किया है और जिसे मैं अकेले ही धारण करता हूँ। और फिर भी, तुमने इस संसार को कैसा बना दिया है?”

आधुनिक संस्कृति ने कितनी ही तरह से, एक प्रबल मायावी शक्ति के द्वारा संकेत करके, नित्य प्रति के जीवन से, ब्रह्मांड की ‘वैज्ञानिक’ धारना से परमात्मा को नकारने का प्रयास किया है। तब तक संसार कभी भी स्थाई सुख या शांति व कष्टों से मुक्ति का मार्ग नहीं पा सकेगा जब तक मनुष्य परमेश्वर को इस सृष्टि के सर्वोच्य सत्य के रूप में नकारता रहेगा।

हमारे दुखों का कारण

वे सब जो कष्ट उठाते हैं ऐसा समय आता है, जब वे मन ही मन प्रश्न करने लगते हैं और सोच विचार करने पर उनके मन में संशय जागते हैं: “यदि भगवान् हैं तो वे यह कष्ट क्यों आने देते हैं? मेरे जीवन में यह कष्ट क्यों आया है? क्या भगवान् मेरी प्रार्थना सुनते हैं?” और जब हम लाखों को भयानक प्रलयंकारी विनाश, युद्ध, आपदाओं से प्रभावित देखते हैं तो हम ऐसा सोचने से बच नहीं पाते -“भगवान् कहाँ हैं? क्या उन्होंने हमें ऐसे ही यहाँ फेंक दिया है, मानवों के झुंड बनाकर इस संसार में जहाँ कठिनाइयां भरी पड़ी हैं और स्वयं कहीं छिप गए हैं?”

ईश्वर हैं। वह सुनते हैं, और वह उत्तर भी देते हैं। हम सन्तों व दिव्य उपदेशकों के जीवन का उदाहरण देखते हैं। यहाँ तक कि एक साधारण व्यक्ति जो एक क्षण के लिए उस अपरिमित चेतना का स्पर्श अनुभव कर लेता है, संभवतया जब उसकी प्रार्थना सुन ली जाती है, वह परमात्मा की एक झलक पता है और अनुभव करता है — “आह, भगवान सच में हैं। वह उत्तर दे देते हैं!” आज की सतही सोच कहती है कि यह सब “अवैज्ञानिक है”। किंतु महान् जन जैसे कि हमारे गुरुदेव परमहंस योगानन्द, निश्चित रूप से उद्घोष करते हैं कि एक गहन विज्ञान भी है जो जीवन के विषय में हमारी सभी जिज्ञासाओं के उत्तर देता है। वह योग का विज्ञान है।

परमात्मा कहीं छिप नहीं गए हैं। उन्होंने हमारा सृजन अपनी ही छवि में किया है; उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति में अपनी असीमित चेतना का अंश डाला और कहा — “अब तुम एक आत्मा हो और मैं तुम्हें अपनी असीमित प्रकृति के अंश के रूप में अपने माया रूपी संसार में भेज रहा हूँ” — न केवल शुद्ध चेतना की वैयक्तिक अभिव्यक्ति के रूप में बल्कि भौतिक पदार्थों एवं उर्जाओं के विशाल ब्रह्मांड में सूक्ष्म प्राण ऊर्जा और फिर उसके बाद स्थूल शरीर में निवास करने वाले प्राणी के रूप में संजोकर।

लेकिन फिर क्या होता है? मनुष्य माया के दुरूह जाल में उलझ जाता है। परमहंसजी माया को अक्सर वैश्विक सम्मोहन कहते थे। सृष्टि के नाटक के संयोजन के लिए परमात्मा हमारी चेतना को यह बोध करवाते हैं कि यह भौतिक जगत् यथार्थ है और हम परमात्मा से पृथक हैं। क्योंकि वह सम्मोहन इतना प्रभावशाली होता है कि हम उसपर विश्वास करने लगते हैं — इस ब्रह्मांडीय सृजन की अंतिम परिणति को ही देख पाते हैं: भौतिक जगत् और अपने क्षणभंगुर भौतिक शरीर को। हम परमात्मा में अपने मूल अस्तित्त्व और शाश्वत दिव्य प्रकृति को भूल जाते हैं जिससे हम परमात्मा के साथ अभेद बंधन से सदा जुड़े हुए हैं; और इसीलिए हम दुःख भोगने लगते हैं।

किंतु एक उपाय है। ब्रह्मांड के सिद्धांत — जिन्हें परमात्मा ने निर्धारित किया — जब उन्होंने स्वयं को प्रकट किया और फिर अपनी प्रजा को अभिव्यक्त किया, जब उन्होंने स्वयं में से प्रकृति तथा वैयक्तिक चेतना को निसृत किया, जो सतही रूप से असीमित सत्ता से पृथक दिखाई देते हैं — उनके वही सिद्धांत प्रतिकूल दिशा में भी लागू होते हैं। और उस विशिष्ट ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग ही योग विज्ञान का सार तत्त्व है।

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