श्री श्री मृणालिनी माता की 70वीं वर्षगांठ

17 जून, 2016

10 जून, 2016 को हमारी पूज्य अध्यक्ष एवं संघमाता को परमहंस योगानन्दजी के आश्रम में पदार्पण किए 70 वर्ष पूरे हो चुके हैं। श्री श्री मृणालिनी माता ने ईश्वर एवं अपने गुरु को अपना जीवन समर्पण करने की इच्छा से परमहंस योगानन्दजी के आश्रम में प्रवेश किया था। दया माताजी के देहावसान के पश्चात् गत 5 वर्षों से वे योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की अध्यक्ष के रूप में सेवारत हैं, तथा इससे पूर्व वे 40 वर्षों से भी अधिक समय तक संस्था की उपाध्यक्ष एवं मुख्य सम्पादक रही हैं। इस दौरान उन्होंने दिव्य ज्ञान, प्रेम, एवं अपने पूरे शरीर, मन, हृदय, एवं आत्मा से समूचे विश्व में फैले योगदा सत्संग सोसाइटी/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के सदस्यों की सेवा की है।

मृणालिनी माता केवल 15 वर्ष की थीं जब 1946 में परमहंस योगानन्दजी ने उन्हें संन्यासी के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए आश्रम में स्वीकार किया था। सन् 1945 में जब वे सॅन-डिएगो स्थित सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के मन्दिर में पहली बार दिव्य गुरु से मिलीं तब महान् गुरु ने उन्हें तत्क्षण पहचान लिया था कि वे आगामी वर्षों में उनके मिशन में एक मुख्य भूमिका निभाने वाली हैं। अतः अपने माता-पिता की स्वीकृति से वे 10 जून, 1946 को एन्सिनीटस स्थित सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के आश्रम में रहने के लिए आ गईं, जहाँ रहते हुए उन्होंने विद्यालय के अन्तिम वर्षों की पढ़ाई पूरी की और साथ ही साथ परमहंसजी का व्यक्तिगत मार्गदर्शन भी प्राप्त किया।

अपनी शिष्या की गत जन्मों के अद्भुत गुणों को जानते हुए, मात्र एक वर्ष के उनके आश्रम प्रवास के पश्चात् ही परमहंसजी ने 1947 में उन्हें संन्यास की दीक्षा प्रदान कर की। उन्होंने अपना संन्यास का नाम “मृणालिनी” चुना जो कमल के पुष्प की पवित्रता का द्योतक है, और प्राचीन काल से आध्यात्मिक उन्नति का प्रतीक है।

उनके आश्रम प्रवास के प्रारम्भिक काल से ही परमहंसजी अन्य शिष्यों को उनकी उस भूमिका के बारे में बताने लगे थे जो उन्होंने मृणालिनी माताजी के लिए सोची हुई थी — विशेषकर परमहंसजी के योगदा सत्संग पाठों, लेखों, एवं व्याख्यानों की सम्पादक के आगामी उत्तरदायित्व के बारे में। वर्ष 1950 में राजर्षि जनकानन्दजी को लिखे अपने पत्र में उन्होंने कहा, “ईश्वर ने मुझे यह तब दिखा दिया था जब मैंने पहली बार उसकी भावना को देखा।” अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में उन्होंने मृणालिनी माताजी को व्यक्तिगत रूप से प्रशिक्षण एवं मार्गदर्शन प्रदान करने में बहुत समय दिया।

मृणालिनी माताजी के प्रयासों के परिणामस्वरूप अब तक परमहंस योगानन्दजी की जो रचनाएं प्रकाशित हुई हैं उनमें बाइबिल पर उनकी अद्वितीय टीका (जिसका शीर्षक है The Second Coming of Christ: The Resurrection of Christ Within You): भगवद्गीता पर उनका बहुप्रशंसित अनुवाद एवं टीका (God Talks With Arjuna); उनकी कविताओं एवं प्रेरणास्पद लेखनियों के अनेक खण्ड एवं उनके संकलित व्याख्यानों एवं लेखों के तीन बृहत् संग्रह सम्मिलित हैं, तथा इनके अलावा भी कई रचनाएं हैं जिन्हें प्रकाशन के लिए तैयार किया जा रहा है।

प्रिय श्री दया माताजी ने 30 नवम्बर 2010 को अपने देहावसान तक पचपन वर्षों से भी अधिक समय के दौरान संस्था की आध्यात्मिक माता की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, और आदरस्वरूप उन्हें सरल भाव से “माँ” कह कर सम्बोधित किया जाता था। जब मृणालिनी माताजी को योगदा सत्संग सोसाइटी/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की चौथी अध्यक्ष मनोनीत किया गया तब अनेक भक्तों ने यह व्यक्त किया कि उनके लिए इसका क्या महत्त्व है कि अब मृणालिनी माताजी इस कार्य को आगे बढ़ाएंगी। निदेशक मण्डल द्वारा उनके मनोनीत किए जाने की घोषणा के कुछ समय बाद ही एक पत्र प्राप्त हुआ जो इस प्रकार है :

सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के निदेशक मण्डल द्वारा श्री मृणालिनी माताजी को अध्यक्ष चयनित किए जाने से मुझे गहन कृतज्ञता का बोध हुआ। ऐसे समय में हम भक्तों को उनकी मधुरता की आवश्यकता है, और इस समूचे संसार को पृथ्वी पर जगन्माता के एक प्रतिनिधि की।

मैं इस बात से अवगत हूँ कि भक्तजन माँ के देहावसान पर उतने ही दुःखी हुए जितना कि बच्चे अपनी माँ के गुज़र जाने पर दुःखी होते हैं। वे इस पथ्वी पर हमारी आध्यात्मिक माँ थीं। मैंने चिन्तन किया कि मृणालिनी माँ जब गुरुजी के पास आयीं तब वे लगभग एक बच्ची थीं, कितनी छोटी, और किस प्रकार गुरुदेव ने उन्हें प्रेम दिया एवं उनका पोषण किया। उन्होंने अपने प्रारम्भिक वर्षों की जो घटनाएं बतायी हैं वे उनके एवं गुरुदेव के बीच के मधुर सम्बन्ध को दर्शाती हैं, तथा उनकी मधुरता को भी।

गुरुदेव के इस चुनाव पर उन्हें अपनी कृतज्ञता अर्पित करते हुए मैंने अपने यह उद्गार व्यक्त किए कि अब हमारे पास एक और माँ हैं, और मैंने गुरुदेव से कहा, “हम उन्हें क्या कह कर पुकारेंगे-हम उन्हें माँ तो नहीं कह सकते, क्योंकि केवल हमारी प्रिय दया माताजी ही माँ थीं। तो क्या कहें, माँ-सी?” और उत्तर मिला, “नहीं, ‘माँ-सी’ नहीं — ‘माँ ही ।” इस उत्तर पर मेरी आँखों से आँसू फूट पड़े।

वे भी हमारी माँ ही हैं। जय गुरु!

भक्तों को लिखे मृणालिनी माताजी के मादर्शन एवं प्रेरणा से भरे नियमित पत्र, साथ ही इस पत्रिका में प्रकाशित उनके गहन लेख एवं उनके व्याख्यानों की प्रकाशित अनेक वीडियो/ऑडियो रिकॉर्डिंग ने उन्हें विश्व भर के योगदा सत्संग सोसाइटी/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप सदस्यों की प्रेमपूर्ण श्रद्धा एवं गहन कृतज्ञता का पात्र बना दिया है। एक व्यक्ति ने लिखा : “आपका परिहास करना, आपका स्पष्ट ज्ञान, आपकी व्यावहारिकता, हमारे गुरुदेव के प्रति श्रद्धाभाव का आपका उदाहरण, इन सभी ने मुझे आशा से भर दिया है। और यह बोध कराया है कि गुरुजी मुझे भी प्रेम करते हैं।” एन्सिनीटस मन्दिर के रविवार स्कूल के बच्चों द्वारा भेजे गए एक कार्ड में लिखा था : “ईश्वर के प्रकाश में बने रहने में हमारी सहयाता करने के लिए आप कितना कुछ करती हैं। हैप्पी मदर्स डे और आप ऐसी ही अद्भुत और प्यारी बनी रहिए!”

इस विशेष वर्षगाँठ पर योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के संन्यासीगण, सदस्य, एवं मित्र श्री मृणालिनी माताजी को अपने आनन्दपूर्ण प्रणाम, एवं अपने हृदयों का एकीकृत प्रेम अर्पित करते हैं।

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