स्वामी चिदानन्दजी के भारत दौरे की मीडिया कवरेज — 2023

6 मई, 2023

योगोदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़ रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (वाईएसएस/एसआरएफ़) के अध्यक्ष एवं आध्यात्मिक प्रमुख श्री श्री स्वामी चिदानन्द गिरि ने हाल ही में फ़रवरी 2023 में भारत का दौरा किया। इस यात्रा के दौरान स्वामीजी ने राँची, नोएडा, एवं दक्षिणेश्वर में स्थित वाइएसएस आश्रमों का दौरा किया और साथ ही हैदराबाद में वाइएसएस संगम 2023 की अध्यक्षता भी की।

स्वामीजी की भारत यात्रा के दौरान मीडिया कवरेज की कुछ झलकियाँ इस प्रकार हैं।

स्वामी चिदानन्दजी के साथ चिन्तन — दि पायोनियर में प्रकाशित एक साक्षात्कार श्रृंखला

समाज एवं विश्व के विभिन्न स्तरों को प्रभावित करने वाले आवश्यक विषयों पर एक अंग्रेजी समाचार पत्र “दि पायोनियर” द्वारा स्वामीजी का साक्षात्कार लिया गया। दस भाग की श्रृंखला के सभी लेख (नीचे प्रस्तुत) दी पायनियर में प्रकाशित हो चुके हैं।

भाग 10 : यदि प्रेरणा को व्यवहार में नहीं लाया जाता है तो वह अर्थहीन है

प्रश्न : स्वामीजी, भारत में रामायण, गीता, और उपनिषदों जैसे ग्रन्थों का अध्ययन करने की परम्परा है। उन सब लोगों के लिए, जो योगानन्दजी की शिक्षाओं का अध्ययन करते हैं, क्या वह सम्पूर्ण ज्ञान उन शिक्षाओं में निहित है? और क्या उन्हें उन शास्त्रों को भी पढ़ने की आवश्यकता है?
और कभी-कभी कोई हमें किसी पुस्तक को पढ़ने या किसी प्रेरणादायक व्याख्यान को सुनने का परामर्श भी देता है। क्या किसी भक्त के लिए अन्य मार्गों अथवा अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों में रूचि न लेना एक आध्यात्मिक अहंकार है?

स्वामी चिदानन्दजी : “नहीं! यह निष्ठा है! तथा यह वस्तुतः इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति अपने मार्ग पर किस स्थान पर है। यदि आप अभी तक केवल अपने मार्ग की खोज ही कर रहे हैं और विभिन्न शिक्षाओं की परस्पर तुलना कर रहे हैं तो निस्सन्देह इस प्रकार विचार करना स्वाभाविक है, “ओह, उस व्याख्यान को सुनते हैं और देखते हैं कि क्या वह उचित है, अथवा क्या यह अधिक अच्छा है।” यह उचित ही है। परन्तु, जिन क्रियावान् शिष्यों ने गुरुदेव के साथ गुरु-शिष्य सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, उनके लिए योगानन्दजी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि आध्यात्मिक शक्ति केवल एक ही माध्यम से प्राप्त होती है, और ईश्वर द्वारा निर्धारित गुरु ही वह माध्यम होते हैं।

अब, इसे भी सन्तुलन और व्यावहारिक ज्ञान के साथ समझना आवश्यक है। इसका अर्थ यह नहीं है कि आपको सब बातों से डरना या उनसे दूर रहना है। आपको अन्य लोगों की प्रेरणादायक कहानियों से अत्यधिक अद्भुत प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त हो सकता है, अथवा वैज्ञानिक जानकारी वास्तव में आपके मन में प्रेरणा जाग्रत कर सकती है, और वे बातें जो हमारे गुरुदेव की किसी शिक्षा को प्रमाणित करती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक बार जब आपने अपने गुरु द्वारा निर्दिष्ट साधना के मार्ग को स्वीकार कर लिया है, तो अन्य आध्यात्मिक निर्देशों अथवा आध्यात्मिक पद्धतियों का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है।

“सर्वप्रथम, योगानन्दजी के भक्तों के रूप में, आप पहले से ही शास्त्रों — गीता; और पाश्चात्य जगत् के लिए, जीसस क्राइस्ट की बाइबिल की शिक्षाओं — का अध्ययन कर रहे हैं। ये दोनों अद्भुत शास्त्र हैं। हम यह नहीं कह रहे हैं, “आपको शास्त्रों का अध्ययन नहीं करना है।” परन्तु क्या सभी शास्त्रों का अध्ययन करना आवश्यक है? नहीं! क्योंकि किसी भी भक्त को शास्त्रों के जिस ज्ञान की आवश्यकता है, उस समस्त ज्ञान का सार गुरुजी ने अपनी शिक्षाओं के माध्यम से हमें प्रदान किया है और उन्होंने उसे साधना का व्यावहारिक स्वरुप प्रदान किया है। अनेक लोग (और संसार ऐसा ही करता है) कोई शास्त्र पढ़ लेते हैं और तत्पश्चात् वे सोचते हैं, “ठीक है, मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया है।” परन्तु इससे आपको वह प्राप्त नहीं होगा जिसे आप खोज रहे हैं। आपको अपनी आत्मा की चेतना का अनुभव करना है, आपको ईश्वर के साथ अपने जीवन्त सक्रिय सम्बन्ध की चेतना का अनुभव करना है। वह आपको कोई पुस्तक पढ़ने से प्राप्त नहीं होगा, चाहे वह कोई शास्त्र ही क्यों न हो।

“इसलिए, शास्त्रों का अध्ययन करने में कुछ भी अनुचित नहीं है। वे अद्भुत हैं, उनके अन्दर अत्यन्त प्रेरणादायक सामग्री है, सदाचार एवं गहन आध्यात्मिक सत्यों इत्यादि के अनेकों शाश्वत एवं अत्यन्त उपयोगी सिद्धान्त हैं। इसलिए, मैं यह कहूँगा कि उनका अध्ययन करना आवश्यक नहीं है, परन्तु उनका अध्ययन करने में कुछ अनुचित भी नहीं है, एक भक्त को केवल यह ध्यान चाहिए कि वह इसमें अत्यधिक समय व्यतीत न करे अथवा ऐसा नहीं होना चाहिए कि इस अध्ययन के कारण उसे योगदा सत्संग पाठमाला का अध्ययन करने और वस्तुतः ध्यान करने का पर्याप्त समय न मिले। गुरुजी ने कहा है कि यदि आप एक घण्टे अध्ययन करते हैं तो उससे दो गुने समय तक अपने चिन्तन को लिखें और उससे भी अधिक समय तक उसके ऊपर गहन विचार करें। ध्यान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। पुस्तकों के अध्ययन से हमें निरन्तर प्रेरणा मिल सकती है, परन्तु अन्त में, यदि प्रेरणा को व्यवहार में नहीं लाया जाता है तो वह अर्थहीन है।”

भाग 9 : एक आध्यात्मिक योद्धा बनें, अपने अन्दर विद्यमान कौरवों से युद्ध करें :

प्रश्न : योगानन्दजी ने कहा है, “एक सन्त वही पापी है जिसने कभी हार नहीं मानी।” परन्तु, कभी-कभी जब एक व्यक्ति आध्यात्मिक मार्ग पर अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है, तो उसके मन में एक भावना हो सकती है कि वह उस मार्ग के योग्य नहीं है। हम स्वयं अपनी सांसारिक आदतों और सांसारिक तौर-तरीकों में इतने गहरे डूबे हुए हैं कि एक व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक यात्रा आरम्भ करते हुए सम्भवतः यह सोचकर हतोत्साहित अनुभव कर सकता है कि, “यहाँ ये सब लोग सन्त हैं और मैं, एक पापी, उनके मध्य बैठा हुआ हूँ!”

स्वामी चिदानन्दजी : सभी मनुष्य, और विशेष रूप से आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले लोग, एक ब्रह्माण्डीय भ्रम के अधीन हैं। हम सब के अन्दर थोड़ी-बहुत विनम्रता है, और उस विनम्रता का अनुचित संचालन स्वाभिमान की कमी या स्वयं को दोषी मानने के रूप में अभिव्यक्त होता है।

परन्तु याद रखें, एक बार किसी ने योगानन्दजी से पूछा था कि योगी कथामृत में सबसे अधिक प्रेरणादायक क्या है, तो उन्होंने कहा था, “मेरे गुरुदेव श्रीयुक्तेश्वरजी के ये शब्द, ‘अतीत को भूल जाओ। सभी मनुष्यों के जीवन अनेक दोषों से कलुषित हैं। यदि तुम इस समय आध्यात्मिक प्रयास कर रहे हो, तो भविष्य में सब कुछ सुधर जाएगा।’” अपने मन को केन्द्रित रखने का यह सकारात्मक उपाय है।

सुनने में यह थोड़ा कठोर प्रतीत हो सकता है किन्तु जब कभी लोग दृढ़तापूर्वक स्वयं से यह कहते रहते हैं कि, “मेरे अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति मुझसे अधिक उन्नत है, और इस कमरे में अकेला मैं ही ऐसा व्यक्ति हूँ जो इस मार्ग में पूर्ण रूप से असफल है,” तब एक प्रकार से, यह प्रयास न करने का एक बहाना बन जाता है। आपको अपनी उस प्रवृत्ति का विरोध करना होगा, और उसे यह आदेश देना होगा, “रुको! मैं तुम्हारी बात नहीं सुनूंगा! यहाँ से दूर भागो!” क्योंकि आपके साथ जो हो रहा है उसकी तुलना आप किसी ऐसे पागल आदमी से कर सकते हैं जो आपके द्वार पर खड़ा है और आपसे कह रहा है, “अरे, तुम तो एक बेकार आदमी हो, तुम किसी काम के आदमी नहीं हो।”

आपके मन के ऐसे भ्रम अहंकार से जुड़े होते हैं, और उनका पहला उद्देश्य होता है आपको आध्यात्मिक प्रयास करने से रोकना। प्रायः स्वयं के प्रति निराशाजनक प्रवृत्ति सबसे अधिक प्रभावी ढंग से आपको आध्यात्मिक प्रयास करने से रोकती है। इसलिए, आपको उसका सामना करना होगा, आपको एक “आध्यात्मिक योद्धा” बनना होगा। ये वे कौरव योद्धा हैं जिनके बारे में परमहंस योगानन्दजी ने श्रीमद्भगवद्गीता की अपनी व्याख्या (ईश्वर-अर्जुन संवाद) के प्रथम अध्याय में उल्लेख किया है। वे कौरव योद्धा आपकी विचार प्रक्रिया से जुड़ने का प्रयास करते हैं, तथा आपको उनका सामना करने और आपकी विजेता आध्यात्मिक प्रकृति पर दृढ़ रहने के मार्ग से आपको विचलित करते हैं और रोकते हैं।

परन्तु यह स्वतः ही नहीं हो जाता है। इसके लिए इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, इसके लिए दृढ़संकल्प की आवश्यकता होती है, इसके लिए आन्तरिक शक्ति की आवश्यकता होती है। परन्तु सबसे बुरा कार्य जो एक व्यक्ति कर सकता है, वह है बार-बार स्वयं से यह कहते रहना कि, “मैं किसी काम का व्यक्ति नहीं हूँ, दूसरा हर व्यक्ति मुझसे अधिक अच्छा है।” इस प्रकार से सोचना बन्द कर दें, और गुरूजी की किसी पुस्तक — जैसे जहाँ है प्रकाश या Metaphysical Meditations— से किसी अधिक सकारात्मक विचार को चुनें। इसीलिए गुरूजी ने हमें ये सकारात्मक प्रतिज्ञापन प्रदान किए हैं, जिसमें उन्होंने कहा है, “मैं ईश्वर की सन्तान हूँ, मैं ईश्वर के प्रतिबिम्ब स्वरूप में निर्मित हूँ।” अपने बारे में गलत धारणाओं के भ्रमों को समाप्त करने के लिए प्रयास करना पड़ता है। तथा वह प्रयास ध्यान और सकारात्मक प्रतिज्ञापन के द्वारा किया जाता है।

भाग 8 : जैसे-जैसे अधिकाधिक लोग आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करेंगे वैसे-वैसे समाज का विकास होगा :

प्रश्न : “योगानन्दजी कहते हैं, “प्रेम का मार्ग ईश्वर को जानने का सरलतम मार्ग है।” ध्यान का मार्ग किस प्रकार से “प्रेम का मार्ग” है? क्या योग हमें इस “अशर्त प्रेम” का अनुभव और अभिव्यक्ति प्रदान कर सकता है?

स्वामी चिदानन्दजी : “हाँ! हाँ! और हाँ! अन्ततः ध्यान हमें सब लोगों के साथ जोड़ देता है, क्योंकि हम अपने अन्दर ईश्वर की विद्यमानता का अनुभव करते हैं, और तत्पश्चात् जब हमारी चेतना विस्तृत हो जाती है, तो हम, पहले अवचेतन या सूक्ष्म स्तर पर और बाद में अधिक प्रत्यक्ष और चेतन स्तर पर, दूसरे व्यक्तियों में ईश्वर की विद्यमानता के प्रति सचेतनता का अनुभव करने लगते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ईश्वर सबसे अधिक प्रेम करने के योग्य हैं। काश सबको यह ज्ञात होता कि ईश्वर क्या हैं…ईश्वर सौन्दर्य हैं, आनंद हैं, और सुख हैं, और सेवाशीलता हैं, और वे उन सब अद्भुत गुणों को अभिव्यक्त करते हैं, जिनके प्रति हमारे हृदय में सहज ही आदर और स्नेह उत्पन्न होता है। इसलिए, जैसा कि दया माताजी ने बारम्बार कहा है, प्रेम के स्रोत के पास जाना ही उस प्रेम को अपने हृदय में अनुभव करने की कुंजी है। यही उनके सम्पूर्ण जीवन का सन्देश था। उन्होंने कहा, ‘मैं प्रेम की खोज कर रही थी, मैं ऐसे प्रेम का अनुभव करना चाहती थी जिसमें मानवीय अपूर्णताओं के दोष नहीं हैं।’ उन्होंने कहा, ‘मैंने प्रारम्भ में ही यह निश्चय कर लिया था कि मैं उस प्रेम की खोज करने के लिए ईश्वर के पास जाऊँगी।’ और कोई ईश्वर के पास कैसे जाता है? ध्यान के द्वारा! उनकी पूरी पुस्तक, केवल प्रेम, इसी के बारे में है।

प्रश्न : स्वामीजी, हम साम्प्रदायिक हिंसा और घृणा का विरोध कैसे कर सकते है?

स्वामी चिदानन्दजी : “हाँ, सर्वप्रथम हमें सार्वभौमिकता और सद्भावना, तथा अन्य धार्मिक परम्पराओं के प्रति सम्मान का आदर्श एवं उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए, जो हमारे गुरुदेव (परमहंस योगानन्दजी) की परम्पराओं एवं शिक्षाओं में देखने को मिलती हैं। 

“व्यक्तिगत तौर पर भक्तों के लिए यह विचार करना थोड़ा अधिक ही महत्वाकांक्षी कार्य प्रतीत होता है कि वे अचानक स्वयं ही साम्प्रदायिक हिंसा को रोक सकते हैं। यह एक क्रमिक विकास प्रक्रिया है। परन्तु हममें से प्रत्येक व्यक्ति इसके प्रति अपना योगदान दे सकता है — सर्वप्रथम, आदर और सद्भावना का आदर्श प्रस्तुत करके, और, जितने लोगों के साथ सम्भव हो, हमारे गुरुदेव के उन विभिन्न लेखों और पुस्तकों को साझा करके जिनमें पृथक-पृथक धर्मों की आधारभूत समानता पर बल दिया गया है। उदाहरण के लिए, गुरूजी की पुस्तक : धर्म विज्ञान, मानव की निरन्तर खोज या इस प्रकार की किसी अन्य पुस्तक के कुछ प्रकरण। ऐसा करने से हमारे समाज में इन विचारों का अधिक से अधिक संचार होगा। और, निस्संदेह, जब कोई व्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति में है, जहाँ कोई अन्य व्यक्ति किसी अन्य मार्ग के अनुयायियों के बारे में कुछ अपमानजनक या अनादरपूर्ण शब्द कह रहा है, और यदि आदरपूर्वक और शिष्टतापूर्वक उसका विरोध करने का अवसर उपलब्ध है, तो केवल इतना कहना चाहिए कि इस संसार में पहले से ही अत्यधिक घृणा व्याप्त है, और यदि इससे परिस्थिति को सुधारने में कुछ सहायता मिलने वाली है तो कुछ और भी कहा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि हमें अन्य लोगों के लिए सुधारक या अनुशासक का कार्य करना है, परन्तु यदि आपके आस-पास कोई इस प्रकार का व्यवहार कर रहा है तो आप उसका विरोध कर सकते हैं। परन्तु, सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात, इस प्रश्न का उत्तर इस बात में निहित है कि अधिक से अधिक भक्त योगदा सत्संग पाठमाला की शिक्षाओं के अनुसार जीवन व्यतीत करें और उसमें सिखाए गए सार्वभौमिक दृष्टिकोण को अपने जीवन में अपनाएं। तथा आप जानते हैं, समय आने पर क्रमिक विकास के द्वारा समाज में एक परिवर्तन आएगा। परन्तु मैं इस बात के लिए भक्तों को प्रोत्साहित नहीं करूंगा कि वे व्यक्तिगत तौर पर साम्प्रदायिक हिंसा का सामना करने की आवश्यकता अनुभव करें, जब तक उनके पास इसके लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं।

भाग 7 : समूह ध्यान (वैयक्तिक अथवा ऑनलाइन) यथार्थ सत्संग है

प्रश्न : हाल ही में वाईएसएस द्वारा हैदराबाद में आयोजित संगम में लगभग 3,200 भक्तों ने भाग लिया। इस संगम के दौरान भक्तों ने जो आशीर्वाद प्राप्त किए हैं उन्हें अपने साथ ले जाने के लिए वे क्या कर सकते हैं?

स्वामी चिदानन्दजी : आज से तीन वर्ष पूर्व इसका जो उत्तर होता, उसकी तुलना में आज मेरा उत्तर भिन्न है, और मैं आपको बताता हूँ कि क्यों। आइए हम सत्संग के मूल सिद्धान्त — आध्यात्मिक संगति — पर विचार करते हैं।

परमहंस योगानन्दजी ने इस विषय में यह बात कही है, ‘पर्यावरण इच्छाशक्ति से अधिक शक्तिशाली होता है।’ जैसी हमारी संगति होती है हम वैसे ही बन जाते हैं। यदि हम व्यापार में अथवा खेल में अथवा किसी अन्य क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, तो भी हम उन लोगों जैसे बन जाते हैं जिनके साथ हमारा मिलना-जुलना रहता है। सामूहिक चेतना हमारे व्यक्तिगत प्रयासों को प्रभावित करती है। योगानन्दजी ने अपने कार्य के प्रारम्भ से ही इस बात पर बल दिया कि भक्तों को सप्ताह में एक या दो बार समूह ध्यान के लिए एकत्र होना चाहिए। यह सत्संग का एक उपाय है। 

दूसरी वस्तु का विकास गत दो वर्षों में हुआ है जब कोविड महामारी फैली और सबको अपने घरों में रहना पड़ा था। तालाबन्दी के कारण सभी ध्यान केन्द्र और आश्रम भी बन्द थे। तालाबन्दी के कुछ महीने पूर्व ही हमने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से ऑनलाइन ध्यान केन्द्र का उद्घाटन किया था, जिसमें भक्तगण एक साथ ऑनलाइन समूह ध्यान कार्यक्रमों और सत्संगों में भाग ले सकते थे। तीन साल के इस एकाकीपन के दौरान सम्पूर्ण विश्व के भक्तों के लिए यह एक वास्तविक जीवनरक्षक सिद्ध हुआ है। अब इस तकनीक की अद्भुत क्षमता का सदुपयोग सत्संग के लिए किया जा सकता है। यदि आप अपने घर से बाहर नहीं निकलते हैं तो भी इस शक्ति के प्रयोग से उचित पर्यावरण का निर्माण किया जा सकता है। 

तीसरी बात यह है।…“एक बार जब आप परमहंस योगानन्दजी जैसे प्रबुद्ध सन्त के साथ एक गहन आध्यात्मिक सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं, तो आप कभी भी अकेले ध्यान नहीं करते हैं, क्योंकि भक्त के प्रयास सदा गुरू की सहायता से सुदृढ़ होते हैं, जो भक्त का परिचय ईश्वर के साथ कराते हैं। एक प्रकार से सत्संग का यह स्वरूप — गुरू के साथ सत्संग — सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं होता है और सदा पूर्ण रूप से उपलब्ध रहता है — चाहे मैं किसी ध्यान केन्द्र से निकट हूँ, कम्प्यूटर के सामने हूँ, किसी अन्य परिस्थिति में हूँ…”

“मेरे लिए स्थायी रूप से यह स्थान (कूटस्थ केन्द्र की ओर संकेत करते हुए) पवित्र शरणस्थली है, आत्मा का मन्दिर है, और भक्त एवं गुरू के मध्य होने वाला सत्संग है, जो कभी भी एक क्षण के लिए भी अनुपलब्ध नहीं होता है। वह सदा उपलब्ध रहता है।”

भाग 6 : सफलता प्राप्त करने के लिए आपको जीवन के लिए एक योजना बनानी पड़ेगी

प्रश्न : स्वामीजी, क्या सच्ची सफलता प्राप्त करने के लिए आप युवाओं को कोई परामर्श देना चाहेंगे?

स्वामी चिदानन्दजी : “सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से यह समझ लें कि मेरे पास एक शरीर है, मेरे पास एक मन है किन्तु मैं स्वयं एक आत्मा हूँ। सच्ची सफलता प्राप्त करने का अर्थ है अपने जीवन और अपने लक्ष्यों को इस प्रकार सुनियोजित करना कि आप उनमें से प्रत्येक को पर्याप्त समय दे सकें। आप सांसारिकता को अनदेखा नहीं कर सकते हैं, और आप बौद्धिक विकास एवं शैक्षिक विकास को अनदेखा नहीं कर सकते हैं और आप निश्चित रूप से आध्यात्मिक चेतना के विकास को भी अनदेखा नहीं कर सकते हैं। 

“सच्ची सफलता एक ऐसी जीवनशैली को अपनाने से प्राप्त होती है जो उनमें से प्रत्येक को पर्याप्त समय दे सके। योगदा सत्संग पाठमाला के माध्यम से आपको ठीक यही शिक्षा प्राप्त होती है। सन्तुलित जीवन का सम्पूर्ण मानचित्र यह है : शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक क्षमता, शिक्षा और बुद्धि एवं विवेकपूर्ण गुणों का विकास, ये सब अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।

“और ध्यान करना सीखें और उसके लिए थोड़ा समय निकालें। सम्भवतः 10 मिनट प्रातःकाल और 10 मिनट सायंकाल। (वस्तुतः यह एक प्रकार से ठीक नहीं है, क्योंकि एक बार जब वे 10 मिनट तक ध्यान करते हैं तो वे 20 मिनट तक करना चाहते हैं, और एक बार जब वे 20 मिनट तक करते हैं तो और अधिक लम्बे समय तक करना चाहते हैं…ध्यान इसी प्रकार कार्य करता है!) 

“परन्तु मुख्य बात यह है…सफलता प्राप्त करने के लिए आपको जीवन के लिए एक योजना बनानी पड़ेगी…केवल सफलता की प्रतीक्षा करते रहने से ही कोई भी व्यक्ति सफल नहीं हो सकता है। हम सबके पास एक दिन में जो 24 घण्टे का समय है, उसे आपको सुनियोजित करना होगा। आपको उसका ध्यान रखना होगा और सतर्कतापूर्वक अपने समय को अपने नियंत्रण में लेना होगा और अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सतर्कतापूर्वक अपने समय का सदुपयोग करना होगा।”

भाग 5 : ऐसे व्यक्ति बनें, जिसका आपकी संतान अनुसरण कर सके!

प्रश्न : हम बच्चों में परमहंस योगानन्द जी की ध्यान-योग की शिक्षाओं के प्रति रूचि कैसे जागृत कर सकते हैं? क्या वाईएसएस और एसआरएफ़ के पास ऐसा कोई साहित्य उपलब्ध है जिसके माध्यम से बच्चों का ध्यान से परिचय कराया जा सकता है?

स्वामी चिदानन्दजी : “माता-पिता सुखी रहकर, सन्तुष्ट रहकर और वे अपने बच्चों में जिन गुणों को देखना चाहते हैं स्वयं उनका आदर्श बनकर इन शिक्षाओं से अपने बच्चों का परिचय करा सकते हैं। आप बच्चों से यह नहीं कह सकते हैं, ‘वह करो जो मैं कहता हूँ , वह नहीं जो मैं करता हूँ।’ यह कभी भी कार्य नहीं करता है। दूसरी ओर, वह व्यक्ति जो कुछ नहीं कहता है किन्तु इस प्रकार का जीवन जीता है जिसमें दयालुता, गरिमा, और दूसरों के लिए सम्मान और आत्म-संकल्प कि, ‘निश्चय ही मेरा जीवन वैसा ही होगा जैसा मैं स्वयं उसका निर्माण करूंगा’ सम्मिलित होते हैं, वह अपने बच्चों को प्रभावित करता है। 

 “…अपनी मूल प्रकृति के अनुसार बच्चे सदैव सीखने का प्रयास करते रहते हैं, इसलिए स्वयं माता-पिता को अपने बच्चों के लिए एक उदाहरण बनना चाहिए। सीखने और आत्मसात् करने के लिए प्रारम्भिक वर्षों में बच्चों में मस्तिष्क और तन्त्रिकाओं की अत्यधिक क्षमता होती है। बच्चे का मन इतना लचीला, इतना नम्य होता है कि उसे अत्यंत सरलतापूर्वक नकारात्मक अथवा सकारात्मक ढंग से ढाला जा सकता है। मैं दृढ़तापूर्वक इसमें विश्वास रखता हूँ, क्योंकि वर्तमान संसार में माता-पिता के उत्तरदायित्वों पर पर्याप्त बल नहीं दिया जाता है। यदि आप एक बच्चे को जन्म देने जा रहे हैं, तो आपको ही उसका उत्तरदायित्व स्वीकार करना होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि आपको सभी आधुनिकतम वीडियो गेम, कपड़े, अमुक फ़ैशन और अमुक प्रकार के उपकरण और अन्य सब कुछ खरीदने की आवश्यकता है। नहीं, आवश्यकता इस बात की है कि आप एक ऐसे व्यक्ति बनें जिसे आपका बच्चा आदर और सम्मान की दृष्टि से देखे।”

स्त्रियाँ आज जिस स्थिति में हैं वह एक परिवर्तनकालिक दौर है

प्रश्न : भारत में (और सम्भवतः सम्पूर्ण विश्व में भी), आम तौर पर माँ परिवार का केन्द्र होती है — जो निरन्तर परिवार, पारिवारिक कर्तव्यों, आजीविका और हर प्रकार के उत्तरदायित्वों के मध्य संघर्ष करती रहती है। अपने विविध उत्तरदायित्वों से समझौता किए बिना और अपने घरों के सामंजस्य में व्यवधान पहुंचाए बिना, स्त्रियाँ कैसे योगानन्दजी द्वारा निर्धारित प्रतिदिन दो बार ध्यान करने की दिनचर्या का पालन कर सकती हैं?

स्वामी चिदानन्दजी : “यह कर्तव्यों की एक लम्बी सूची है, है कि नहीं? मैं इस सन्दर्भ में एक बात कहना चाहता हूँ। भारत और सम्पूर्ण विश्व के अन्य अधिक विकसित राष्ट्रों में स्त्रियों की वर्तमान परिस्थिति एक परिवर्तनकालिक अवस्था है। महिलाओं से इतने अधिक कार्य की अपेक्षा करना उस पीढ़ी की विरासत है जिसमें स्त्रियाँ अधिक दबाव में रहती थीं और वे ‘तुम केवल घर में ही रहोगी और भोजन बनाने और सफाई करने का कार्य करोगी’ इत्यादि की धारणा के प्रभाव में उपेक्षित रहती थीं। यह एक क्रूर और पूर्वकालिक धारणा है। इसके साथ ही, हम एक प्रकार से मध्यवर्ती अवस्था में हैं, जहाँ स्त्रियाँ अपने व्यक्तिगत विकास और अपनी व्यक्तिगत रुचियों के विकास के लिए दूसरे मार्ग खोजने की योग्यता रखती हैं, और यह उचित भी है। परन्तु पुरुषों और स्त्रियों के लिए एक सन्तुलित भूमिका का सम्मान करना, तथा घर में और व्यावसायिक जगत् में सामंजस्यपूर्ण जीवन का निर्माण करना ही एक यथार्थ आध्यात्मिक सन्तुलन का जीवन होगा।” 

“मैं इसे पूरी तरह से समझता हूँ और मैं यह नहीं जानता कि स्त्रियाँ इसे कैसे सहन करती हैं। सामान्य रूप से, स्त्रियाँ पुरूषों से अधिक शक्तिशाली होती हैं, क्योंकि उन्हें इतने अधिक उत्तरदायित्व निभाने पड़ते हैं। स्त्रियों को यह सोचने की आवश्यकता नहीं है कि उनके लिए ‘सब कुछ प्राप्त करना’ आवश्यक है — कॉर्पोरेट एक्सिक्यूटिव होना, दो या तीन अत्यधिक-सफल बच्चे, दो या तीन अच्छे और बड़े घर, एक आदर्श शरीर, आदर्श स्वास्थ्य, इत्यादि। यह तनावों का वह समूह है जो लम्बे समय तक टिक नहीं सकता है, और दुर्भाग्यवश, व्यापक रूप से यह समाज अभी भी उचित सन्तुलन को प्राप्त करने की खोज प्रक्रिया से गुजर रहा है। परन्तु, हमें यह ज्ञात नहीं है कि उसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है, और आपने जिस परिस्थिति का वर्णन किया है, हमें उसको तब तक सहन करना पड़ेगा जब तक कि वह परिस्थिति बदल नहीं जाती है। जितना शीघ्र हम इस परिस्थिति को परिवर्तित कर सकें उतना ही अच्छा है।”

भाग 4 : विश्व की विकसित होती आध्यात्मिक संस्कृति से जुड़ी भारत की आध्यात्मिकता

प्रश्न : स्वामीजी, आपके विचार में विकासशील वैश्विक आध्यात्मिक सभ्यता में भारत की आध्यात्मिकता क्या भूमिका निभा सकती है?

स्वामी चिदानन्दजी : “यह विषय मेरे हृदय को अत्यन्त प्रिय है, और हमारे गरुदेव परमहंस योगानन्दजी को भी अत्यंत प्रिय था और यह उन मुख्य उद्देश्यों में से एक था जिनकी पूर्ति के लिए उन्हें भेजा गया था। भारत की आध्यात्मिकता के विषय में बात करने के लिए, आइए हम सभ्यता के स्वर्णिम युग में पुनः लौटते हैं जिससे गीता, योगसूत्र और उपनिषदों की उत्पत्ति हुई थी। यहाँ, आपको वह यथार्थ सर्वजनीन शिक्षा प्राप्त होती है, जो इस धर्म या उस धर्म के अमुक सदस्य को, अथवा केवल एक जाति के किसी सदस्य को सम्बोधित नहीं करती है, अपितु वह सम्पूर्ण विश्व की मानवीय परिस्थिति को सम्बोधित करती है। इसलिए उपनिषदों में आपको ये सुन्दर अभिव्यक्तियाँ मिलती हैं कि ‘सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है’ [‘वसुधैव कुटुम्बकम्’], तथा ‘सत्य एक है यद्यपि ऋषि उन्हें अनेक नामों से पुकारते हैं’ [‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’]।

“आदर्श धर्म यह होना चाहिए : ‘सभी प्राणी सुखी हों, सभी प्राणियों को कष्टों से मुक्ति प्राप्त हो।’ यह नहीं कि, ‘सभी भारतीय सुखी हों’ या ‘सभी हिन्दू सुखी हों किन्तु मुस्लिम या ईसाई नहीं’ इत्यादि, क्योंकि हम सबके अन्दर एक ही ईश्वर का स्फुलिंग विद्यमान है। यह उस विकास प्रक्रिया का एक अंग है जिसे देखने के लिए हम आए हैं : कि हम एक दूसरे को अपने भाइयों और बहनों के रूप में पहचानें अथवा एक दूसरे का और उसके साथ ही उस योजना का भी विनाश कर दें।

“सम्पूर्ण विश्व भारत को अत्यन्त सम्मान की दृष्टि से देखता है”

“भारत की भूमिका के सन्दर्भ में, भारत जो महानतम् वस्तु विश्व को प्रदान कर सकता है वह है भारत की अपनी दिव्य एवं शाश्वत विरासत का आदर्श एवं उदाहरण, क्योंकि सम्पूर्ण विश्व भारत को अत्यन्त सम्मान की दृष्टि से देखता है। यदि आप कभी पश्चिम में नहीं गए हैं तो सम्भवतः आप नहीं जानते होंगे, परन्तु किसी ऐसे व्यक्ति की दृष्टि में जिसका प्रारम्भिक जीवन उस पीढ़ी के साथ बीता है जिसमें सम्भवतः अनेक लोगों ने या तो योगी कथामृत पुस्तक पढ़ी होगी या उन्होंने भारत से अमेरिका में आए किसी आध्यात्मिक शिक्षक के किसी कार्यक्रम में भाग लिया होगा, विश्व भारत को इस दृष्टि से देखता है। तथा यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, और दक्षिण अमेरिका के साथ भी ऐसा ही है। मानवता और आध्यात्मिकता के सन्दर्भ में लाखों लोग भारत का एक अग्रज के रूप में आदर करते हैं।

“इसमें कोई संदेह नहीं है कि वैश्विक आध्यात्मिक सभ्यता का विकास दो प्रकार से हो रहा है — एक भौतिक रूप में — प्रौद्योगिकी, संचार, और यात्रा के माध्यम से। जब आप कुछ पीढ़ियों पूर्व के समय की ओर पीछे मुड़कर देखते हैं तो अमेरिका से भारत तक की यात्रा करना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी और अनेक लोगों के लिए यह असम्भव था। परन्तु आज लोग केवल वायुयान में बैठकर बेंगलुरु या शिकागो जा सकते हैं। तो, विश्व बहुत छोटा हो गया है। अब यह विश्व अलग-अलग देशों और सभ्यताओं का विविधतापूर्ण समूह नहीं है।

“इंटरनेट ने मानव समाज के ढांचे को पूर्णतया रूपान्तरित कर दिया है। यह वस्तुतः एक तन्त्रिका तन्त्र की भांति बन गया है जो मानव परिवार के एक शरीर को संगठित करता है। क्या होता है कि जब आप लोगों को एक दूसरे से अधिक निकट लाते हैं, तो आप एक-दूसरे के साथ अधिक अच्छी तरह से मिलजुल कर रहते हैं। जैसे वह आपका एक परिवार हो, जहाँ आप उनके साथ एक ही घर में रहते हैं। दुर्भाग्यवश, आपने परिवार के ऐसे सदस्यों को देखा है जिनके मध्य एक दूसरे के प्रति अत्यधिक कटुता होती है। परन्तु, यदि मानव जाति ऐसा करती है तो वह कुछ पीढ़ियों से अधिक नहीं टिक पाएगी।

“हमारे पास सामूहिक विनाश की क्षमता है, जो आज से सौ वर्ष पूर्व नहीं थी। तकनीकी शक्ति में वृद्धि और विश्व के संकुचन के साथ-साथ, हम वस्तुतः एक ही परिवार में रह रहे हैं, जो अभिलिखित इतिहास में पहले कभी भी इतना अधिक नहीं था। ऐसी स्थिति में हमारे लिए उसी परिमाण में ‘आध्यात्मिक पालन-पोषण’ और ‘आध्यात्मिक परिपक्वता’ का होना आवश्यक है जहाँ हमारे पास आत्म-नियन्त्रण हो, जहाँ हम उन लोगों से दूर रहने का प्रयास नहीं करते जिन्हें हम पसन्द नहीं करते हैं। हमारे अन्दर आध्यात्मिक परिपक्वता का होना आवश्यक है ताकि हम यह अनुभव कर सकें कि हमारी भाँति ही अन्य मनुष्यों में भी सुख और सुरक्षा, शान्ति और सफलता प्राप्त करने की सहज प्रवृत्ति विद्यमान है। तथा अन्ततः लोग यह अनुभव करने लगते हैं कि, ‘मैं वास्तव में तब तक सुखी नहीं हो सकता हूँ जब तक मेरे आस-पास के लोग सुखी नहीं होंगे।’ आप उन्हें यह कहकर दूर नहीं ढकेल सकते हैं कि उस देश में ऐसा है और उस देश में ऐसा है, क्योंकि वह व्यापक रूप से सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित करता है। देखिए रूस और यूक्रेन के साथ क्या हुआ है। आज से सौ वर्ष पूर्व, यह ऐसा होता कि दो पड़ोसी देश एक दूसरे पर आक्रमण कर रहे हैं। और आज प्रधानमंत्री मोदी से लेकर राष्ट्रपति बाइडेन तक और बीच में प्रत्येक व्यक्ति ने यह कहा है कि 21वीं शताब्दी में ऐसा करना हमारे लिए उचित नहीं है। भौतिक प्रौद्योगिकी के साथ-साथ, उसके सदृश ही आध्यात्मिकता का विकास होना भी आवश्यक है।”

भाग 3 : ध्यान जीवन जीने का एक कौशल है

प्रश्न : अपने व्यस्त जीवन में लोग ध्यान के लिए समय कैसे निकाल सकते हैं?

स्वामी चिदानन्दजी : “जैसे-जैसे संसार अधिक से अधिक जटिल होता जा रहा है, अधिक से अधिक भौतिकता की ओर आकर्षित हो रहा है, लोग यह अनुभव कर रहे हैं कि ध्यान जीवन जीने का एक कौशल है। यदि आपके लिए उस प्रकार का आन्तरिक शान्ति का झरना या स्रोत उपलब्ध नहीं है तो आप चूर-चूर होकर बिखर जाएँगे।

“लोगों को किस बात से प्रेरणा मिलेगी और वे समय कैसे निकाल सकते हैं, इस सन्दर्भ में आप उनसे यह प्रश्न कर सकते हैं कि वे सोने के लिए समय कैसे निकालते हैं, भोजन करने के लिए समय कैसे निकालते हैं, ये सब कार्य करने के लिए समय कैसे निकालते हैं? क्योंकि आप यह मानते हैं कि ये कार्य अनिवार्य हैं। जैसे-जैसे समाज में अधिक और अधिक पागलपन बढ़ता जा रहा है, पाश्चात्य देशों में — यूरोप में, अमेरिका में, दक्षिणी अमेरिका में, ऑस्ट्रेलिया में, और निश्चित रूप से, भारत में — लोगों ने यह अनुभव किया है कि, ‘अपनी मानवता और अपने विवेक पर नियन्त्रण बनाए रखने के लिए भी मुझे आत्मा की सचेतनता के साथ सम्पर्क स्थापित करना सीखना होगा।’”

ध्यान : इसे करके देखें और तुलना करें!

प्रश्न : आज का समाज युवकों को यह सिखाता है कि इन्द्रियों में लिप्त रहना ही जीवन का आनन्द लेने का एकमात्र मार्ग है, जबकि ध्यान और योग इसके विपरीत शिक्षा देते हैं — कि आत्म-नियन्त्रण और अन्तर्मुखीकरण ही सुख का मार्ग है। क्या योगानन्दजी की शिक्षाएँ इस दुविधा का समाधान करती हैं?

स्वामी चिदानन्दजी : “परमहंस योगानन्दजी सदा यह कहा करते थे, ‘इसे करके देखें और तुलना करें।’ जन्म-जन्मान्तर के दौरान जारी आत्मा की विकास-यात्रा में, प्रत्येक मनुष्य एक ऐसे स्थान पर पहुँचता है जहाँ वह विचार करता है, ‘इन्द्रियों को संतुष्ट करने से मैं असंतुष्ट ही रहूँगा क्योंकि मैं स्वयं इन्द्रियाँ नहीं हूँ।’ हम सब ने यह अनुभव किया है, और हम उन लोगों की आलोचना नहीं कर रहे हैं, जो कामवासना या मदिरा या समृद्धि, इत्यादि के पीछे दौड़ रहे हैं। जब कोई व्यक्ति आध्यात्मिक मार्ग के प्रति गम्भीर रूप से प्रतिबद्ध होना आरम्भ करता है, तो इसका कारण यह होता है कि उसने वह सब कुछ करके देख लिया है और अन्त में उसे इन सब से कोई संतुष्टि प्राप्त नहीं हुई है।

“दूसरी ओर, किसी ऐसे व्यक्ति को विश्वास दिलाना अत्यन्त कठिन है जो अभी तक उस स्थान तक नहीं पहुंचा है। आप किसी को भाषण देते हुए यह नहीं कह सकते हैं, ‘यह मत करो, तुम्हारे लिए यह अनुचित है।’ जब आप एक बच्चे थे और आपकी माँ आपसे ऐसा कुछ कहती थीं और उनके वहाँ से हटते ही उनकी पीठ पीछे आप पुनः वही करना चाहते थे। ऐसा करने से कोई लाभ नहीं होगा। उचित मनोवृत्ति यही है, ‘ध्यान करके देखें, और तत्पश्चात् तुलना करें।’”


आत्म-साक्षात्कार के उच्चतम स्तर

प्रश्न : व्यक्ति को कहाँ से प्रारम्भ करना चाहिए?

स्वामी चिदानन्दजी : “हम उन्हें परमहंस योगानन्दजी की एक पुस्तक — ‘योगी कथामृत’ अथवा ‘जहाँ है प्रकाश’ देते हैं, जो एक प्रकार से उनके लिए एक प्रवेश द्वार का कार्य करता है। तत्पश्चात् हम उन्हें हमारे गुरुदेव परमहंस योगानन्दजी द्वारा प्रदत्त अद्भुत योगदा सत्संग पाठमाला के परिचय को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। इस परिचय का शीर्षक है, ‘आत्म-साक्षात्कार के उच्चतम स्तर।’ तो शीर्षक में ही यह कहा गया है कि, ‘आप अपने जीवन में कुछ प्राप्त करना चाहते हैं? यदि हाँ, तो इसे पढ़ें और देखें कि आप क्या अनुभव करते हैं।’ योगदा सत्संग पाठमाला में ध्यान की नियमित दिनचर्या से सम्बन्धित निर्देश प्रदान किए जाते हैं और कुछ महीनों में प्रविधियाँ और नौ या दस महीनों के बाद ध्यान करने हेतु हर प्रकार की सक्षमता प्रदान करने के लिए आपके पास सब प्रकार के साधन उपलब्ध होते हैं।”

भाग 2 : उच्चतम भौतिक सफलता, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक स्वास्थ्य एवं सन्तुलन, तथा सर्वोपरि, आध्यात्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु ध्यान का प्रयोग करें :

प्रश्न : स्वामीजी, क्या योगानन्दजी अपनी शिक्षाओं में किसी ऐसे मार्ग का विवरण देते हैं या उल्लेख करते हैं जिसका अनुसरण किसी व्यक्ति या किसी नौजवान को सफलता प्राप्त करने के लिए करना चाहिए? मनुष्यों द्वारा सफलता प्राप्त करने के सन्दर्भ में उनकी शिक्षाओं में क्या व्याख्या की गई? क्या योगानन्दजी की शिक्षाएँ जीवन में सफलता प्राप्त करने में युवकों की सहायता कर सकती हैं?<

स्वामी चिदानन्दजी : “मनुष्यों के रूप, में हमारे अन्दर सफलता प्राप्त करने की प्राकृतिक क्षमता विद्यमान है। परन्तु, व्यक्ति को यह ज्ञात होना चाहिए कि उन क्षमताओं को, उन साधनों को, कैसे संचालित करना है। तथा उनकी [परमहंस योगानन्दजी की] शिक्षाएँ हमें यही सिखाती हैं। इन सबका मूल आधार है सन्तुलन की धारणा, जिसका अर्थ यह है कि हमारी प्रकृति का एक भौतिक पक्ष है : हमारे पास एक शरीर है, हमें उसका पोषण करना है, और जब वह रोगग्रस्त हो जाता है तब हमें उसकी देखभाल करनी है, हमें उसके आरोग्य करने का उपाय ढूंढना है।…और जीवन के भौतिक पक्ष से जुड़े सभी विषयों पर ध्यान देना है। परन्तु बात यह है कि अधिकांश मानव जाति केवल यहीं पर रुक जाती है।

“उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हमारे अस्तित्व का एक मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक, और उनसे भी उच्चतर, आध्यात्मिक आयाम भी है। इसलिए सफलता का उनका (परमहंसजी का) मार्ग था उचित सन्तुलन को प्राप्त करना, जहाँ आप भौतिक सफलता और समृद्धि प्राप्त करते हैं, जहाँ आपके पास भावनात्मक सन्तुलन और आन्तरिक शान्ति होती है, और सर्वोपरि, आध्यात्मिक रूप से, आपके पास एक उच्चतर उद्देश्य के लिए अपने जीवन को संचालित करने का ज्ञान होता है — न केवल धन एकत्र करना, न केवल परिवार और सन्तानों की उपलब्धि, अपितु यह अनुभव करने का एक उच्चतर उद्देश्य कि मैं ईश्वर का एक स्फुलिंग हूँ, मैं इस भौतिक शरीर में निवास करने वाली आत्मा हूँ और अपने जीवन के सभी पक्षों में ईश्वर के पूर्ण साक्षात्कार और अभिव्यक्ति की प्राप्ति ही मेरा अन्तिम उद्देश्य है।”

स्वामीजी ने आगे कहा : “अब, एक बार जब आप यह धारणा बना लेते हैं, तो जीवन अत्यन्त रोमांचक हो जाता है क्योंकि सब प्रकार के कौशल और क्षमताएँ और योग्यताएँ आपके लिए उपलब्ध हैं जो प्रत्येक मनुष्य की अक्षय निधि का अंग हैं, परन्तु वे तब तक पूर्ण रूप से निष्क्रिय रहती हैं जब तक उन्हें सचेतन एकाग्रता और सचेतन प्रयास के द्वारा जाग्रत नहीं किया जाता है। और योगानन्दजी की शिक्षाएँ हमें यही प्रदान करती हैं। वे कहते हैं कि ध्यान के द्वारा, इच्छाशक्ति के विकास के द्वारा, एकाग्रता के विकास के द्वारा, उन सभी गुणों के विकास के द्वारा जो हमें एक पूर्ण मनुष्य बनाते हैं, आप सर्वोच्च भौतिक सफलता, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक स्वास्थ्य एवं सन्तुलन, और सर्वोपरि, आध्यात्मिक स्वास्थ्य, प्राप्त कर सकते हैं।

“जब सन् 1920 में वे अमेरिका आए थे, तो संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास में इस चरण को ‘गरजता हुआ तीसरा दशक’ कहा जाता था क्योंकि उस समय अमेरिका पूरे उत्साह में था, और पूंजीवाद के अपने दर्शन को लेकर तेजी से प्रगति कर रहा था। वे अनेकों सफल व्यवसायियों और औद्योगिक संस्थानों के प्रमुखों इत्यादि से मिले और उन सबने यह स्वीकार किया कि योगानन्दजी उनके मध्य उस वस्तु को लेकर आए थे जिसकी उनके जीवन में कमी थी।

“मैं आपको एक छोटा सा मनोरंजक वृत्तान्त सुनाता हूँ : जब वे न्यूयॉर्क नगर में व्याख्यान दे रहे थे तो एक व्यक्ति ने उनके साथ भेंट करने की अनुमति मांगी। वह व्यक्ति उनके होटल के कमरे में आया और इससे पूर्व कि योगानन्दजी कुछ कहते, उसने एक चुनौतीपूर्ण ढंग से कहा, ‘मैं अत्यधिक धनवान हूँ, मैं पूर्ण रूप से स्वस्थ हूँ,’ जिसका अर्थ यह था कि ‘आप यहाँ किसलिए आए हैं?’ और योगानन्दजी ने उसे तुरन्त उत्तर दिया, ‘हाँ, किन्तु क्या आप पूर्ण रूप से सुखी हैं?’

“बाद में उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं निरुत्तर हो गया था!’ और उस व्यक्ति ने अपना शेष जीवन एक क्रियायोगी के रूप में व्यतीत किया। बाह्य रूप से वह एक करोड़पति उद्योगपति था, परन्तु अन्दर से वह एक प्रबुद्ध योगी था।”

भाग 1 : नयी पीढ़ियाँ अधिक विकसित होंगी

प्रश्न : स्वामीजी, आपके विचार में आज के नौजवानों पर परमहंस योगानन्दजी की शिक्षाओं का क्या प्रभाव पड़ेगा?

स्वामी चिदानन्दजी : “यह ध्यान रखते हुए कि सभी मनुष्य वस्तुतः आत्माएँ ही हैं, आपके लिए केवल एक छोटे से जन्म के आधार पर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं है। जिन्हें हम ‘नौजवान व्यक्ति’ कहते हैं वे पुरानी आत्माएँ हैं और वे प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्जात कामनाओं — सुख, सुरक्षा, और प्रेम इत्यादि कामनाओं — को पूर्ण करने के लिए हर प्रकार के प्रयासों और आकांक्षाओं से गुजर चुकी हैं। उन्होंने उस [तृप्ति] को प्राप्त करने के प्रयास में अनेक जन्म व्यतीत किए हैं, और अन्ततः वे यहाँ आए हैं। तथा जिन लोगों ने जन्म लिया है, उनमें से लाखों लोग अपने पूर्व जन्मों से विकास के उस चरण में हैं।

“श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण इस विषय पर प्रकाश डालते हैं। वे अर्जुन से कहते हैं, ‘यदि अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त किए बिना तुम्हारे इस जीवन का अन्त हो जाता है तो चिन्ता मत करो, क्योंकि योग ध्यान का कोई भी प्रयास व्यर्थ नहीं होता है।’ तत्पश्चात् उस भक्त का एक ऐसे वातावरण में पुनर्जन्म होता है जहाँ वह पुनः अपनी आगे की यात्रा प्रारम्भ करता है। इसलिए, जिन्हें आप ‘नौजवान व्यक्ति’ कह रहे हैं वे ज्ञानीजन हैं, वे सम्भवतः ऐसी युद्धरत आत्माएँ हैं जो हर प्रकार के अनुभव से गुजर चुकी हैं, और जिनकी चेतना इस प्रकार की है कि उन्होंने विभिन्न परिस्थितियों में हर तरह के कार्य किए हैं। और वे पुनः लौट कर आते हैं और कहते हैं, ‘अब मैं अपना और अधिक समय व्यर्थ नहीं गवाऊँगा, मैं अपने और अधिक जन्मों को व्यर्थ नहीं गवाऊँगा, और मैं वह कार्य करूँगा जो वास्तव में मेरी आत्मा की क्षमताओं और मेरी आत्मा में विद्यमान उस दिव्य सम्पर्क की तृष्णा की पूर्ति करेगा।’

“जिस प्रकार सम्पूर्ण जीवन का विकास एक ऊर्ध्वगामी स्वरूप में होता है, ठीक उसी प्रकार मनुष्यों का विकास भी प्रारम्भिक मानवीय प्रतिभाओं से आरम्भ होकर विकास की उच्चतर अवस्थाओं तक होता है, और उनकी क्षमता एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में निरन्तर और अधिकाधिक विकसित होती रहती है। सम्पूर्ण मानव जाति विकास एवं प्रतिविकास के चक्रों से गुजरती रहती है, जिन्हें शास्त्रों में युगों के नाम से सम्बोधित किया जाता है। उनका आरोहण और अवरोहण होता रहता है; इस समय हम एक ऐसे युग में हैं जो आरोहण की अवस्था में है। दूसरे शब्दों में, वर्तमान काल में जन्म लेने वाली आत्माएँ अपने दादा-दादी और परदादा-दादी की अपेक्षा विकास की उच्चतर अवस्था में हैं।…आज के बच्चों को देखें; उनके अन्दर स्वाभाविक रूप से यह भावना है…‘नहीं केवल किसी की त्वचा के रंग के कारण मेरे हृदय में उनके प्रति घृणा उत्पन्न नहीं होगी,’ और इन बच्चों के हृदयों में एक अन्य प्रकार की मानवीय अज्ञानता के प्रति एक स्वाभाविक अस्वीकृति है जिसमें सम्पूर्ण विश्व के सभी देशों में पुरानी पीढ़ियाँ दृढ़तापूर्वक विश्वास करती थीं।

“यह लगभग ऐसा है कि जैसे वे पहले से ही थोड़ी-बहुत तैयारी करके आते हैं, और जैसे ही उनको [श्री श्री परमहंस योगानन्द द्वारा प्रदत्त] ध्यान के इस सिद्धान्त का, सर्वजनीन आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर आधारित इस मार्ग—जिसका ‘मेरा धर्म और आपका धर्म’ से कोई सारोकार नहीं है, अपितु यह एक सार्वभौमिक मार्ग है जो मानवीय परिवार को विभाजित करने के स्थान पर संगठित करता है—का परिचय प्राप्त होता है, तो यह उन्हें पूर्ण रूप से तर्कसंगत प्रतीत होता है क्योंकि अपने विकास के सीढ़ी पर ऊपर चढ़ते हुए वे ठीक उसी स्थान पर हैं। मेरे विचार में जब आपकी आयु मेरी वर्तमान आयु के बराबर होगी, तो सम्भवतः आप और भी बहुत अधिक विकास को देखेंगे। तब आप पीछे मुड़कर देखेंगे और कहेंगे, ‘ओह, उन पिछली पीढ़ियों के लोग ऐसे कैसे हो सकते थे?’”

दूरदर्शन इण्डिया के साथ साक्षात्कार

हम आपको डीडी न्यूज़ द्वारा आयोजित स्वामीजी के साक्षात्कार को देखने के लिए आमंत्रित करते हैं जिसमें स्वामीजी हमें बताते हैं, कि संसार जिन भी कठिनाइयों से होकर गुज़र रहा हो, उनका समभाव में रहकर सामना करने के लिए और अपने जन्मजात दिव्य आन्तरिक गुणों की खोज करने के लिए ध्यान और सार्वभौमिक आध्यात्मिकता कितनी महत्वपूर्ण है।

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हम आपके साथ कुछ समाचार-पत्र की कवरेज साझा करना चाहेंगे जो स्वामी चिदानन्दजी के राँची, नॉएडा और दक्षिणेश्वर में स्थित वाइएसएस आश्रमों के दौरे के समय प्रकाशित हुईं। इसके अतिरिक्त, वाइएसएस संगम 2023 के लिए स्वामीजी की हैदराबाद में उपस्थिति को भी बड़े पैमाने पर प्रेस द्वारा समाविष्ट किया गया।

राँची

हिन्दुस्तान टाइम्स हिन्दी, राँची, झारखण्ड
दि पायोनियर, राँची, झारखण्ड

हैदराबाद

दक्षिणेश्वर

दि टेलीग्राफ़
आज कल बंगाली

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