आज से सौ वर्ष पूर्व, जुलाई 1915 में, श्री श्री परमहंस योगानन्द ने संन्यास की प्राचीन स्वामी परम्परा में दीक्षा प्राप्त की थी, जब उन्होंने प. बंगाल के श्रीरामपुर में अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर से संन्यास ग्रहण किया। यह घटना बाईस वर्षीय मुकुन्द लाल घोष — जो उस समय स्वामी योगानन्द गिरि बन गए थे — के जीवन में न केवल एक महत्त्वपूर्ण मोड़ साबित हुई, अपितु उनकी चिरस्थायी विरासत के एक अंग के रूप में उनके द्वारा स्थापित संन्यास परम्परा के कारण, 20वीं सदी और इसके बाद भी, वैश्विक आध्यात्मिक जागरण पर पड़ने वाले उनके प्रभाव की यह पूर्वसूचना थी।

जिस प्राचीन स्वामी परम्परा से परमहंस योगानन्द जुड़े थे, वह वर्तमान में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के संन्यासी समुदाय के रूप में फल-फूल रही है जिसमें भारत के विभिन्न भागों से आए संन्यासी सम्मिलित हैं। यह संन्यास परम्परा वाईएसएस के विकास को जारी रखती है तथा भारतीय उपमहाद्वीप में योग के व्यापक प्रसार में सहायता करती है।

वाईएसएस/एसआरएफ़ अध्यक्ष श्री श्री स्वामी चिदानन्द गिरि 2019 में वाईएसएस रांची आश्रम में स्मृति मंदिर में स्वामी परम्परा के नव-दीक्षित स्वामियों के साथ
वाईएसएस/एसआरएफ़ अध्यक्ष श्री श्री स्वामी चिदानन्द गिरि 2019 में वाईएसएस राँची आश्रम में स्मृति मन्दिर में स्वामी परम्परा के नव-दीक्षित स्वामियों के साथ

उनके द्वारा स्थापित संन्यास परम्परा के बारे में समझाते हुए परमहंसजी ने लिखा है: “मेरे लिए स्वामी संप्रदाय के संन्यासी के रूप में किसी भी सांसारिक बंधन में न बंधते हुए, इस तरह का पूर्ण त्याग ही अपना जीवन पूर्णत: ईश्वर को समर्पित करने की मेरे हृदय की प्रबल इच्छा का एकमात्र संभव समाधान था।…

एक संन्यासी के रूप में, मेरा जीवन ईश्वर की पूर्ण सेवा और उनके संदेश से हृदयों को आध्यात्मिक रूप से जागृत करने के लिए समर्पित है। जो लोग मेरे पथ का अनुसरण कर रहे हैं और जो योग साधना के ध्यान तथा कर्तव्यपरायणता के आदर्शों के माध्यम से ईश्वर की खोज एवं सेवा का पूर्ण त्याग का जीवन जीना चाहते हैं, उनके लिए मैंने आदि शंकराचार्य के संप्रदाय में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप/योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया की संन्यास परम्परा प्रारम्भ की है, जिसमें मैंने अपने गुरु से संन्यास दीक्षा लेकर प्रवेश किया था। जो संगठनात्मक कार्य ईश्वर और मेरे गुरु तथा परमगुरुओं ने मेरे माध्यम से प्रारम्भ किया है उसे आगे बढ़ाया जा रहा है।…उन लोगों द्वारा जिन्होंने त्याग और ईश्वर प्रेम के उच्चतम उद्देश्यों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है।”

स्वामी चिदानन्दजी (मध्य में, बोलते हुए) वाईएसएस राँची आश्रम में संन्यासियों के साथ एक अनौपचारिक सभा में

"मेरा संन्यास-ग्रहण : स्वामी परम्परा के अंतर्गत"

  परमहंस योगानन्द द्वारा

“गुरुदेव! मेरे पिताजी मुझसे बंगाल-नागपुर रेलवे में एक अधिकारी का पद ग्रहण करने के लिए आग्रह करते रहे हैं। परंतु मैंने साफ मना कर दिया है।” फिर मैंने आशा के साथ आगे कहा : “गुरुदेव! क्या आप मुझे स्वामी परम्परा की संन्यास दीक्षा नहीं देंगे?” मैं अनुनयपूर्वक अपने गुरु [स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि] की ओर देखता रहा। विगत वर्षों में मेरे निश्चय की गहराई की परीक्षा लेने के लिए उन्होंने मेरे इसी अनुरोध को कई बार ठुकरा दिया था। परंतु आज अनुग्रहपूर्ण मुस्कान उनके मुखमंडल पर आ गई।

“ठीक है, कल मैं तुम्हें संन्यास दीक्षा दे दूँगा।” फिर शांत भाव से वे कहते गए : “मुझे खुशी है कि संन्यास ग्रहण करने की इच्छा पर तुम अटल रहे। लाहिड़ी महाशय प्राय: कहा करते थे : ‘अपने जीवन के वसंत में यदि तुम ईश्वर को आमंत्रित नहीं करोगे, तो तुम्हारे जीवन के शिशिर में वे तुम्हारे पास नहीं आएंगे।’”
“प्रिय गुरुदेव! मैं आप ही की भाँति स्वामी परम्परा में शामिल होने की अपनी इच्छा को कभी नहीं छोड़ सकता था।” असीम स्नेह के साथ उनकी ओर देखते हुए मैं मुस्कराया।…

प्रभु को अपने जीवन में द्वितीय श्रेणी का स्थान देने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। वे ही तो समस्त ब्रह्मांड के स्वामी हैं जो जन्म-जन्मांतर में मनुष्य पर वरदानों की वर्षा करते आ रहे हैं। और इस कृपावर्षा के बदले में मनुष्य उन्हें केवल एक ही चीज़ दे सकता है—अपना प्रेम, जो देने या न देने की उसे पूर्ण छूट है।…

अगला दिन मेरे जीवन का सबसे अविस्मरणीय दिन था। मुझे याद है कि कॉलेज से स्नातक होने के कुछ सप्ताह बाद ही, यह सन 1915 के जुलाई महीने का एक गुरुवार था। अपने श्रीरामपुर आश्रम के भीतर के एक बरामदे में श्रीयुक्तेश्वरजी ने एक श्वेत रेशमी वस्त्र को संन्यास धर्म के परम्परागत गेरुए रंग में डुबाया। जब वस्त्र सूख गया, तो मेरे गुरु ने उसे एक संन्यासी के वस्त्र के तौर पर मेरे बदन पर लपेट दिया।…

श्रीयुक्तेश्वरजी के चरणों में सिर नवाते हुए जब प्रथम बार उनके मुँह से अपना नया नाम सुना, तो मेरा हृदय कृतज्ञता से भर उठा। कितने प्रेमपूर्वक उन्होंने अथक परिश्रम किया था ताकि बालक मुकुन्द एक दिन स्वामी योगानन्द में परिणत हो सके! मैं आह्लादित होकर शंकराचार्यजी के एक लंबे स्तोत्र के कुछ श्लोक गाने लगा:

मनोबुद्ध् यहंकारचित्तानि नाहं
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायु:;
चिदानन्दरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्।
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म:;
चिदानन्दरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्।
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेंद्रियाणां;
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न बन्ध:
चिदानन्दरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्।

वास्तव में, क्रियायोग ध्यान के प्राचीन विज्ञान का पश्चिम तथा समग्र विश्व में प्रसार करने का परमहंसजी का विशिष्ट मिशन अमेरिका में उनके द्वारा किए गए स्वामी परम्परा के ऐतिहासिक विस्तार के साथ अभिन्न रूप से संबन्धित था। योगानन्दजी के क्रियायोग मिशन के संन्यास संप्रदाय की जड़ें उनके गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि की आधुनिक समय में क्रियायोग की गुरु-परम्परा के संस्थापक, महावतार बाबाजी के साथ हुई मुलाक़ात तक जाती हैं। सदियों से लुप्त हो चुके क्रिया विज्ञान को जन-सामान्य को सिखाने की प्रक्रिया शुरू करने के उद्देश्य से बाबाजी ने सर्वप्रथम लाहिड़ी महाशयजी को क्रियायोग की दीक्षा प्रदान की, जोकि एक गृहस्थ थे। 1894 के इलाहाबाद कुम्भ मेले में महावतार बाबाजी से मिलने तक श्रीयुक्तेश्वरजी भी अपने गुरु लाहिड़ी महाशयजी की तरह ही एक गृहस्थ थे (यद्यपि उनकी पत्नी का देहांत हो चुका था)। श्रीयुक्तेश्वरजी ने उस मुलाक़ात का वर्णन इस प्रकार किया है: “स्वामीजी, आपका स्वागत है,” बाबाजी ने अत्यंत प्रेम से कहा।

“मैं स्वामी नहीं हूँ, महाराज।” मैंने ज़ोर देते हुए कहा।

“ईश्वर की आज्ञा से मैं जिसे स्वामी की उपाधि प्रदान करता हूँ, वह कभी उस उपाधि का त्याग नहीं करता।” उस सन्त ने अत्यंत सरल भाव से मुझसे यह कहा परंतु उनके शब्दों में गहरा सत्य ध्वनित हो रहा था; मैं तत्क्षण आध्यात्मिक आशीर्वाद की लहरों में हिलोरें लेने लगा।

बाबाजी ने नये स्वामी से कहा: “अब से कुछ वर्षों बाद मैं आपके पास एक शिष्य भेजूँगा, जिसे आप पश्चिम में योग का ज्ञान प्रसारित करने के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं।” नि:संदेह, वह शिष्य परमहंसजी ही थे, जैसा कि बाद में स्वयं महावतार द्वारा परमहंसजी को बताया गया था। योगानन्दजी को उनके पास प्रशिक्षण के लिए भेजने से पहले, श्रीयुक्तेश्वरजी को स्वामी बनाकर बाबाजी ने इस प्रकार सुनिश्चित कर लिया कि पश्चिम एवं समग्र विश्व में क्रियायोग का मुख्य प्रसार भारत की प्राचीन संन्यास परम्परा के समर्पित संन्यासियों द्वारा ही किया जायेगा।

 

परमहंस योगानन्द अपने हाथ उठाकर अपने प्रिय शिष्य जेम्स जे. लिन को आशीर्वाद देते हुए, जिनको उन्होंने तभी संन्यास दीक्षा प्रदान की थी, और संन्यास का नाम राजर्षि जनकानन्द रखा था; एसआरएफ़-वाईएसएस अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय, लॉस एंजिलिस, अगस्त 25, 1951

श्री दया माताजी मदर सेण्टर में 1970 में स्वामी श्यामानन्दजी को संन्यास का गेरुआ वस्त्र ओढ़ाते हुए

श्री दया माता जी मदर सेण्टर में 1970 में स्वामी श्यामानन्दजी को संन्यास का गेरुआ वस्त्र ओढ़ाते हुए

1925 में, लॉस एंजेलिस में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय की स्थापना करने के बाद परमहंसजी ने धीरे-धीरे ऐसे पुरुषों एवं महिलाओं को प्रशिक्षण के लिए स्वीकार करना प्रारम्भ किया जो अपना जीवन पूरी तरह से ईश्वर की खोज में समर्पित करने की अभिलाषा से आए थे। श्री दया माता, श्री ज्ञान माता, तथा अन्य पूरी तरह से समर्पित कुछ प्रारम्भिक शिष्यों के आने के साथ ही माउण्ट वॉशिंगटन के शिखर पर बना आश्रम संन्यासियों के लगातार बढ़ते परिवार का निवास बन गया। इन संन्यासियों के हृदयों में उन्होंने सन्यस्त जीवन की भावना तथा वे आदर्श आरोपित किए, जिन्हें उन्होंने स्वयं अपनाया था तथा जिनका वे परिपूर्ण उदाहरण थे। गुरुदेव ने अपने निकटतम शिष्यों को — जिन्हें उन्होंने अपने भावी मिशन की ज़िम्मेदारी सौंपी थी — अपनी शिक्षाओं के प्रसार तथा उनके द्वारा विश्व भर में प्रारंभ किए गए आध्यात्मिक एवं मानव कल्याण के कार्यों को जारी रखने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए। आज भी वही आध्यात्मिक शिक्षाएँ एवं अनुशासन जो उन्होंने अपने जीवनकाल में आश्रमवासियों को दिया था, अपने पूर्ण रूप में संन्यासियों तथा संन्यासिनियों की नई पीढ़ी को हस्तांतरित किया जा रहा है।

इस प्रकार, परमहंस योगानन्द के माध्यम से, भारत की प्राचीन संन्यास परम्परा ने अमेरिका में गहरी और स्थायी जड़ें जमाईं। पश्चिम के योग्य व्यक्तियों को दीक्षा देने के अतिरिक्त परमहंसजी ने परम्परागत प्रथा में एक और तरीके से बदलाव किया : उन्होंने महिलाओं तथा पुरुषों को समान रूप से संन्यास की पवित्र दीक्षा एवं आध्यात्मिक नेतृत्व के पद प्रदान किए, जोकि उनके समय में एक असाधारण प्रथा थी। वास्तव में, एसआरएफ़ के जिस शिष्य को उन्होंने सर्वप्रथम संन्यास की दीक्षा दी, वह एक महिला थीं — श्री दया माता, जिन्होंने बाद में पचास से भी अधिक वर्षों तक वाईएसएस/एसआरएफ़ की आध्यात्मिक प्रमुख के रूप में अपनी सेवाएं दीं।

1958 में श्री दया माता की अध्यक्षता के दौरान, भारत में स्वामी संप्रदाय के वरिष्ठ आध्यात्मिक प्रमुख — पुरी के शंकराचार्य, परमपूज्य स्वामी श्री भारती कृष्ण तीर्थ — अपनी तीन माह की अभूतपूर्व अमेरिका यात्रा में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अतिथि रहे। भारत के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब किसी शंकराचार्य ने पश्चिम की यात्रा की थी। सन्त सदृश शंकराचार्यजी श्री दया माता का काफी सम्मान करते थे, उन्होंने श्री दया माता को, वाईएसएस/एसआरएफ़ के आश्रमों में परमहंस योगानन्दजी द्वारा बाबाजी के आदेश पर प्रारम्भ किए गए सन्यासी समुदाय का प्रसार करने के लिए, अपना विधिवत् आशीर्वाद प्रदान किया। भारत लौटने पर उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषित किया: “आध्यात्म, सेवा, एवं प्रेम को मैंने सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप [योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया] में सबसे अधिक पाया। उनके प्रतिनिधि इन सिद्धांतों पर केवल प्रवचन ही नहीं देते हैं, बल्कि वे इनके अनुसार अपना जीवन भी जीते हैं।”

Sri Sri Daya Mata with Shankaracharya
परमपूज्य जगद्गुरु, गोवर्धन मठ, पुरी के शंकराचार्य, स्वामी श्री भारती कृष्ण तीर्थ – श्री दया माता के साथ सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय में, लॉस एंजिलिस, मार्च 1958

परमहंस योगानन्द के कार्य का विस्तार

योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के संन्यासी कई प्रकार की सेवाओं द्वारा परमहंसजी के कार्य का विस्तार कर रहे हैं — देश-भर में प्रवचन यात्राएं तथा संगम कार्यक्रम आयोजित करना, सार्वजनिक कार्यक्रमों में जनसाधारण के साथ जुड़ना, कार्यालय में अपने निर्दिष्ट कर्तव्यों का निर्वहन करना, तथा साधकों को आध्यात्मिक परामर्श देना, इत्यादि।

YSS Vice-president Swami Smarnananda speaking to a devotee
A YSS monk distributes Essential Items to the Needy
Swamis Krishnananda, Bhavananda and Smaranananda with Sri Sri Daya Mata
YSS General Secretary Swami Ishwarananda counsels devotees
A YSS sannyasi distributing solar lamps in Dwarahat, Uttarakhand
YSS monastics planning Ashram activities
YSS Sannyasis carrying palanquin during dedication of the YSS Gurugram Dhyana Kendra
YSS Monks in a Prabhat Feri in Kumbha Mela, Allahabad, 2019

"ईश्वर सर्वप्रथम, ईश्वर सदैव, सिर्फ ईश्वर"

श्री श्री मृणालिनी माता

योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की संघमाता तथा अध्यक्षा द्वारा एसआरएफ़ के संन्यासी एवं संन्यासिनियों को दिए गए सत्संग से उद्धृत

Sri Sri Mrinalini Mata

प्रिय आत्मन्,

पिछले कुछ वर्षों ने हमारे दिव्य गुरु की योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप का अत्यधिक विकास होते हुए देखा है; इसके कार्य का विस्तार एक नए युग में प्रवेश कर रहा है। हम अपने गुरुदेव के शब्दों को बार-बार याद करते हैं जो उन्होंने अनेक वर्ष पूर्व कहे थे जब हम संन्यासी के रूप में अपना जीवन समर्पित करने आए थे: “जब मैं अपने शरीर का त्याग करूँगा तब यह संस्था मेरा शरीर होगी, तुम सब लोग मेरे हाथ-पाँव एवं वाणी होगे।” समर्पण का यह जीवन कितना पवित्र अवसर है और कितना मुक्तिप्रदायक अनुभव है। प्रत्येक, जो हृदय से इसे अपनाता है वह गुरुदेव के अस्तित्व के एक प्रकाशमान परमाणु के समान हो जाता है। वह पूरी संस्था के लिए एक आवश्यक योगदान देता है, जिसके द्वारा गुरुदेव की संस्था उनके ईश्वर-प्रेम की भावना में ओतप्रोत होकर निरंतर दूसरों की सेवा कर सकती है।

संसार आध्यात्मिक गुणों एवं नैतिकता को बिलकुल खो चुका है। जो लोग संन्यास का पथ चुनते हैं, वे सामान्य भौतिक प्रतिमान से ऊपर उठकर जीवन जीने की अपनी आत्मा की इच्छा तथा क्षमता के अनुसार ऐसा करते हैं। यद्यपि तुलनात्मक रूप से कुछ लोग ही संन्यास लेते हैं फिर भी ऐसे लोग दूसरों के समक्ष उच्चतर मूल्यों को प्रस्तुत करते हुए अनुशासित जीवन जीते हैं। जो केवल ईश्वर को जीवन अर्पित करता है, उसके जीवन की पवित्रता द्वारा लोग कुछ अलग व विशेष अनुभव प्राप्त करते हैं। सादगी के व्रत का पालन, आज्ञाकारिता, शुचिता, निष्ठा, ध्यान में सतत् लगन और विनम्रतापूर्वक आत्म-सुधार करने जैसे गुण साधक में आश्चर्यजनक बदलाव लाते हैं। यहाँ तक कि उसके शरीर का भी आध्यात्मीकरण हो जाता है। दूसरे लोग इस विषय में कुछ कह नहीं पाते हैं, परन्तु वे इस साधक के आभामंडल को अनुभव करते हैं जो किसी न किसी तरह उनके लिए उत्थानकारी होता है और उन्हें ईश्वर का आभास देता है। विनम्र साधक इसका दिखावा नहीं करता है; यह भी संभव है कि इसके विषय में वह जानता ही न हो।

अपने को आध्यात्मिक पथ पर समर्पित करने से ऊंचा अन्य कोई कार्य नहीं है, न ही इससे महान् कोई सफलता है जिसे हासिल किया जा सकता हो और न ही अनन्त की दृष्टि में इससे अधिक यश कोई प्राप्त कर सकता है। इस पथ पर जो सफल है, जो ईश्वर व गुरु के साथ तादात्म्य बनाते हुए अपनी आत्मा से सेवा करता है, वह चुपचाप और अनजाने ही संसार के हज़ारों लोगों को परिवर्तित कर देता है। एक दिन ईश्वर के समक्ष वह पुनरवलोकन करते हुए कह सकता है, “अरे! जगन्माता और गुरुदेव ने इस तुच्छ जीवन के साथ क्या कर दिया!” इन अनेक वर्षों में गुरुदेव के कार्य की प्रगति उनके आध्यात्मिक परिवार के कारण है—इस परिवार में संन्यासी समुदाय के साथ-साथ अनेक गृहस्थ भक्त भी हैं जिन्होंने गुरुजी की शिक्षाओं और आदर्शों के अनुकूल जीवन्त उदाहरण बनने के लिए जीवन अर्पित कर दिया।

गुरुदेव ही योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप का जीवन और हृदय हैं। हम उनकी चेतना को आश्रम के अपने दैनिक जीवन में समाविष्ट करते हैं। गुरुदेव के संन्यासी और संन्यासिनी अपने आचरण, विचार, एवं संपूर्ण भाव से यही सीखते हैं कि भले ही उनके निर्दिष्ट कार्य उन्हें कहीं भी क्यों न ले जाएँ परन्तु उन्हें सदा याद रहे: “मैंने स्वयं को एक आदर्श के लिए समर्पित कर दिया है, वही आध्यात्मिक आदर्श जो मेरे गुरु के जीवन में अभिव्यक्त था : सर्वप्रथम ईश्वर, सदैव ईश्वर, केवल ईश्वर।” वह भक्त जिसका जीवन सचमुच गुरुजी के आदर्शों के लिए समर्पित है, उसे गुरुजी का आशीर्वाद सदैव प्राप्त है, जिसको वे सबकी सेवा के लिए माध्यम बनाकर प्रयोग कर सकते हैं। वे उसके जीवन के द्वारा ईश्वर के प्रेम, ईश्वरीय प्रज्ञा व ईश्वर के संरक्षण को, जीसस की क्षमा को, श्रीकृष्ण के ज्ञान को व अन्य दैवी गुणों को – जिन्हें उन्होंने[गुरुदेव] अत्यन्त सुन्दरता व प्रसन्नता से अपने निजी जीवन में अभिव्यक्त किया है – व्यक्त करवा सकते हैं। हम सभी अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं कि हमें उनके द्वारा स्थापित किए गए आश्रमों में यह सुअवसर उपलब्ध हुआ है – न केवल अपनी मुक्ति के लिए साधना करने के लिए, अपितु ऐसा करके उस दैवीय आशीर्वाद को चिरस्थायी बनाने के लिए जिसे गुरुदेव ने सबकी मुक्ति एवं मानवता के उन्नयन हेतु प्रदान किया है।

आमंत्रण

अविवाहित पुरुष जो पारिवारिक दायित्वों से मुक्त हैं, और जिनमें स्वयं को ईश्वर की खोज और योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के संन्यास समुदाय में एक संन्यासी के रूप में सेवा हेतु समर्पित करने की इच्छा है, उन्हें वाईएसएस मुख्यालय से संपर्क करने के लिए आमंत्रित किया जाता है।

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