गहरे ध्यान हेतु परमहंसजी के साथ चैन्टिंग

दुर्गा माता के संस्मरण 

दुर्गा माता (1903 – 1993) परमहंस योगानन्दजी के प्रारंभिक शिष्यों में से एक थीं। और उन्होंने उनके विश्वव्यापी कार्य को स्थापित करने में अद्वितीय भूमिका निभाई। महान् गुरु के “प्रथम पीढ़ी” के शिष्यों के साथ-साथ दुर्गा माता को उनकी सेवा करने और उनकी भक्तिमय चैन्टिंग की भावना को सीधे आत्मसात करने का सौभाग्य मिला।

दुर्गा माता और अन्य शिष्यों को यदा-कदा गुरुजी के साथ निर्जन और सुनसान स्थलों की सैर पर जाने का सौभाग्य मिलता था जोकि दिनचर्या की एकरसता को भंग करने के लिए होती थीं। भक्तों से चैन्टिंग व ध्यान के लिए मिलते समय वह प्रायः एक ऐसे अवसर की चर्चा किया करती थीं।

“मुझे याद है जब एक बार गुरुजी भक्तों के एक समूह के साथ पाम स्प्रिंग्स के निकट रेगिस्तान में पाम घाटी गए थे। हमने उस घाटी में नीचे उतरकर ध्यान किया और गुरुजी अत्यंत गहरी समाधि में चले गए। मैं उनके पास नहीं थी; मैं एक शिला पर अकेले ध्यान कर रही थी। कुछ समय बाद उन्होंने हम सबको साथ हाउस कार में लौटने के लिए बुलाया। जब हम घाटी के रास्ते से चल रहे थे, तो मैं बिल्कुल उनके पीछे थी। अचानक मैंने उनसे निकलती हुई एक गहरी निश्चलता का अनुभव किया। यह मेरे भीतर से नहीं थी, यह उनसे आ रही थी। मैं उनके इतने निकट थी कि उनके स्पंदन को अनुभव कर सकती थी। तत्क्षण ही इसने मेरी चेतना को एक अतीन्द्रिय निश्चलता में पहुंचा दिया। मैं चलती रही और मुझे अपने आसपास की हर चीज का बोध था — मुझे रास्ते के पत्थर दिखाई दे रहे थे जिन पर पैर रखकर आगे बढ़ना था — फिर भी मुझे अपनी देह का अनुभव बिल्कुल नहीं हो रहा था। वहाँ केवल एक सर्वव्यापी निश्चलता का एहसास था; मुझे बिल्कुल भान नहीं था कि मैं देह में हूँ।

“तभी गुरूजी मेरी ओर मुड़े और कहा ‘कुछ लकड़ियाँ उठा लो, हमें आग जलानी है।’ मैंने अपनी लकड़ियों का बोझ उठाया और उन लकड़ियों का बोझ ले चलती रही, लेकिन उस निश्चलता भरे आनंद में एक अंश भी कमी नहीं आई। मेरा मन शांत और निश्चल था — किसी व्यग्रता या विचार की कोई लहर नहीं थी; और फिर भी मैं हर चीज देख और अनुभव कर रही थी। जब हम हाउस कार के पास पहुंचे तो मैंने उन लकड़ियों को नीचे रख दिया। तब वह मेरी ओर मुड़े और कहा “निश्चलता ही ईश्वर है।”

“यह बहुत बड़ी सीख थी। हम ईश्वर के प्रतिरूप में बने हैं और जैसा कि गुरुजी कहते थे, ‘ईश्वर बिल्कुल यहीं हैं, बिल्कुल हमारे भीतर। तुम उसे क्यों नहीं देखते? क्योंकि तुम अन्य हर जगह देख रहे हो।’ तुम उसे आज, कल, किसी भी समय खोज सकते हो; जब तक तुम अपनी चेतना को अपने अन्तर की ओर मोड़कर उसे वहाँ बनाए रखो और लगातार उसे बाहर ना रखो।

दुर्गा माता अक्सर सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के आश्रमों में भक्तों के समूहों से मिलती रहतीं और परमहंस योगानन्दजी के व्यक्तिगत प्रशिक्षण में आध्यात्मिक जाप की कला को उनसे साझा करतीं। ये मिलन शिष्यों को ऐसा अवसर प्रदान करते कि वह न केवल गुरुजी के भजनों के शब्दों और लय को सीखते, बल्कि एकाग्रता, समझ और भक्तिपूर्ण जाप करने की कला भी सीख लेते। इन अवसरों पर उनकी टिप्पणियों का संग्रह नीचे दिया है।

“जाप हमारे मन को शांत और अंतर्मुखी करने का एक अद्भुत तरीका है….. एक तरीका जो हमारी व्यग्रता की गंदी मिट्टी और मानसिक मलबे में ठहराव लाने में सहायता करता है ताकि हम स्पष्ट रूप से सत्य या ईश्वर का बोध कर सकें।”

“गुरुजी हमसे कहते थे, जाप ईश्वर प्राप्ति का एक तरीका है……जब हम जाप करते हैं, हम मन को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं और उसे एकचित्त होकर जाप के शब्दों में व्यक्त विचार पर लगाते हैं। जब जाप खत्म होता है, तुम प्रकट विचारों, जाप आवाजों, अथवा अन्य चीजों से परे मौन ध्यान में अधिक सहजता से जा सकते हो। यही वह समय है जब ईश्वर आ सकते हैं : मन की नीरवता और आंतरिक निश्चलता में।

“जब गुरुजी ने इन भजनों को रचा, वह उन्हें बारंबार तब तक दोहराते रहते थे, जैसा कि वह कहते, जब तक वे आध्यात्मिक नहीं हो जाते या उनमें प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो जाती। उनका मतलब था वह जाप को तब तक दोहराते जब तक उन्हें वास्तविक अनुभव द्वारा भजन के प्रत्येक शब्द के पीछे के आध्यात्मिक भाव की प्राप्ति ना हो जाती। वह केवल अपनी वाणी से ही नहीं अपितु अपने ह्रदय, मन, विशेषकर आत्मा से जाप करते थे। और जब हम उनके साथ जाप करते, और हम सच में स्वयं को उस भजन में लगाते तो उनका आध्यात्मिक बोध उनकी चेतना से हमारी चेतना में प्रवाहित होने लगता, हमें उस अद्भुत आनंदपूर्ण एकात्म की झलक दिखाता हुआ जो उस समय वह अनुभव कर रहे होते थे।”

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