आनन्द माता के संस्मरण

आनन्द माता (1915–2005)

परमहंस योगानन्दजी के प्रारंभिक एवं निकटतम शिष्यों में प्रमुख एवं हमारी अध्यक्षा श्री श्री दया माता की बहन, श्री आनन्द माता का देहावसान 5 फ़रवरी, 2005 को हो गया है। यद्यपि उन्होंने कई दशकों तक परमहंसजी और उनके कार्यों की सेवा की, लेकिन उन्होंने सार्वजनिक वक्ता या शिक्षक की अपेक्षा “परोक्ष रूप” से सेवा करना पसंद किया। इसलिए हम उनके अपने शब्दों में परमहंसजी के बारे में स्मृतियों के बजाय दूसरों द्वारा बताए गए उनके जीवन के इस वर्णन को सम्मिलित कर रहे हैं।

आनन्द माता परमहंसजी के द्वारा चुने गए उन भक्तों में से एक थीं जिन्हें गुरुदेव ने अपनी विश्वव्यापी संस्था की नींव बनाने तथा भविष्य के अपने कार्यों को आगे बढ़ाने में सहायता करने के लिए व्यक्तिगत रूप से प्रशिक्षित किया था। आनन्द माता का जन्म 7 अक्तूबर, 1915 को हुआ था तथा उनका नाम लूसी वर्जीनिया राइट था। वे 1931 में गुरुजी से मिली थीं और 1933 में उन्होंने आश्रम में प्रवेश किया था। इसी समय से उन्होंने स्वयं को ईश्वर के प्रेम तथा सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। इसके लिए उन्होंने परमहंसजी की शिक्षाओं को आत्मसात किया, उन्हें जिया और उनके पवित्र लक्ष्य को भली भाँति पूरा करने में जुट गईं। वे गुरुदेव के उन प्रारंभिक शिष्यों में से एक थीं जिन्होंने उन्हीं से संन्यास की दीक्षा ली थी। 1935 में दीक्षा लेकर वे प्राचीन ऋषियों की स्वामी परंपरा में सम्मिलित हो गईं थीं। वे आजीवन अपने संकल्प एवं साधना के प्रति समर्पित रहीं। गुरुदेव ने उन्हें योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टरर्स की सदस्या के रूप में मनोनीत किया था।

श्री आनन्द माता को श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से 11 फ़रवरी 2005 को मदर सेन्टर में एक ‘स्मृतिमय सभा’ आयोजित की गई जिसमें सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप तथा सभी आश्रमों के संन्यासी तथा संन्यासिनियाँ सम्मिलित हुए। स्वामी विश्वानन्दजी ने अन्तिम विधियाँ पूरी करने में सहयोग दिया। इस अवसर पर प्रमुख वक्ता थे मृणालिनी माता, श्री श्री दया माता, और स्वामी श्री आनन्दमयजी। श्री आनन्द माता के ईश्वर तथा गुरु के प्रति अतुलनीय समर्पण तथा संन्यासी जीवन से संबंधित घटनाओं को लेकर सभी ने उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की जिसके प्रमुख अंश इस प्रकार हैं:

स्वामी आनन्दमय गिरि :

मुझे याद है कि एक दिन मैं गुरुदेव परमहंस योगानन्दजी के साथ कार पार्किंग वाले बेसमेन्ट की सीढ़ियों पर जा रहा था। आनन्द माँ वहाँ उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं क्योंकि वे ही उनकी कार ड्राइव किया करती थीं। जब हम लोग जा रहे थे, गुरुदेव ने मेरी बाँह पकड़ ली और खड़े होकर कहा : “सदा याद रखो कि फ़े तथा वर्जीनिया शतप्रतिशत भक्ति, आज्ञाकारिता तथा निष्ठापूर्ण जीवन जी रही हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम भी उनका अनुगमन करो।” यह कहते कहते उन्होंने मेरी बाँह दबा दी कि वे जो कुछ कह रहे थें वही मुझे करना है। यह घटना तब घटी, जब मैंने आश्रम में प्रवेश ही किया था।

कुछ वर्षों के बाद गुरुदेव ने लगभग उन्हीं शब्दों को दोहराया था। और उस समय तक मुझे गुरुदेव, उनके कार्यों तथा आध्यात्मिक जीवन के विषय में कुछ अधिक जानकारी हो चुकी थी। मैंने सोचा: “गुरुदेव एक अवतार हैं, ईश्वर का प्रतिरूप हैं; और उनके इतने सरल प्रतीत होने वाले शब्दों से बढ़कर किसी शिष्य की और क्या प्रशंसा हो सकती है। गुरुदेव ने जो कुछ कहा था उससे बढ़कर कोई दूसरी प्रशंसा संभव ही नहीं है।”

आनन्द माँ के विषय में एक दूसरी घटना 1951 में घटी थी। मुझे गुरुदेव के स्नानघर की दीवारों को फिर से प्लास्टर करने का काम सौंपा गया था मैं बाहर प्लास्टर तैयार करके, दो बाल्टियों में भरकर, सीढ़ियाँ चढ़कर, तीसरी मंजिल पर ले जा रहा था। एकबार जब मैं दोनों बाल्टियाँ उठाकर चल रहा था तो वे मुझे ज़्यादा भारी लगने लगीं, उनके हैंडिल भी तार से बने थे जिसके कारण मेरा हाथ कटने लगा मैंने हाथों को थोड़ा आराम देने के विचार से दोनों बाल्टियाँ नीचे रख दीं। उसी समय मेरे निकट रखे हुए फ़ोन की घंटी बजने लगी, और आनन्द माँ बात करने के लिए अपने ऑफ़िस से बाहर निकल आईं।

अब, मैं कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो सपनों या किसी प्रकार के दैवी अनुभव पर विश्वास कर लेता है। मेरी इस तरह की बातों में कोई रुचि नहीं है । परन्तु जैसे ही मैंने आनन्द माँ को फ़ोन उठाते हुए देखा मैं यह देखकर हैरान रह गया कि उनके चारों ओर प्रकाश फैला है प्रकाश का एक पूरा घेरा था। उसकी चमक बढ़ती जा रही थी, मुझे लगा कि “यह हो क्या रहा है?” इसके बाद मैंने माँ के आकार को बदलते हुए देखा। वह एक अति सुन्दर दिव्य आकार में बदल गईं। मैं जो कुछ देख रहा था। उसपर विश्वास नहीं कर पा रहा था। यह केवल क्षणिक प्रकाश नहीं था; यह आकार कई पलों तक बना रहा। इसके बाद धीरे-धीरे प्रकाश की चमक कम होने लगी और वह दिव्य रूप पुनः आनन्द माता बन गया। उन्होंने फ़ोन रख दिया और अपने ऑफ़िस वापस चली गईं।

अनेक वर्षों के बाद एक प्राचीन ग्रन्थ में मैंने भगवान् कृष्ण के विषय में पढ़ा था कि जब ईश्वर अवतार लेकर धरती पर आते हैं तब अनेक दैवी शक्तियाँ स्वेच्छा से उनके साथ अवतरित होती हैं। कहा जाता है कि पूर्व जन्म के ऋषि-मुनि उस जन्म में श्रीकृष्ण के सखा बने थे; वे गोपियों और ग्वालों के रूप में वृन्दावन में श्रीकृष्ण के साथ लीला कर रहे थे। मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि गुरुदेव की दया माता, आनन्द माता जैसी महान् शिष्याएँ तथा कुछ अन्य शिष्य केवल कार्मिक कारणों से नहीं जन्मे थे, बल्कि हमारे गुरुदेव के दिव्य अवतार के समय, ईश्वर की सेवा के लिए आए थे।

आनन्द माँ ने अनेक वर्षों तक, दिनरात लगकर, पूर्ण निष्ठा सहित अनथक सेवा की। हममें से अधिकतर लोग यह जानते हैं कि कभी-कभी वे कैसे अत्यन्त कठोर बन जाती थीं। परन्तु अपने जीवन के अन्तिम चरण में — जब वे बीमार हो जाने के कारण कोई भी कार्य नहीं कर पाती थीं — जब उनका मन संस्था की देखभाल व समस्याओं व परेशानियों में नहीं उलझा था — उनके व्यक्तित्व का एक नया पक्ष अभिव्यक्त हुआ : जो अत्यंत मधुर एवं सुप्रिय था। जब कभी मैं उनसे मिला वे मेरे पास आईं — मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए — एक शब्द भी नहीं कहा — और केवल अपना प्रेम व्यक्त किया।

बाद में जब मैंने सुना कि उनकी शारीरिक दशा बिगड़ रही है, मुझे उनके कमरे में विदा कहने के लिए बुलाया गया। वे बात नहीं कर पा रही थीं परन्तु उन्होंने अपनी आँखों और हाथों के माध्यम से बात की। उन्होंने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों से पकड़ लिए और मुझे अत्यधिक प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा। यह एक अनोखा अनुभव था और तब यह जानते हुए कि वे गुरुदेव से कितना प्रेम करती थीं, मैंने उनसे कहाः “गुरुदेव आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।” उसके उत्तर में मैंने अतिशय उल्लासपूर्ण स्पन्दन का अनुभव किया जैसेकि वे अभिव्यक्त कर रही हों : “मैं पुनः गुरुदेव के साथ रहने के लिए जा रही हूँ।” जो कुछ मैंने अनुभव किया उसे व्यक्त नहीं कर सकूँगा — वह केवल असीम प्रेम एवं आनन्द था। मुझे लगा कि यह ” सम्पूर्ण जीवन की सेवा का अत्यन्त ज्वलन्त उदाहरण था जिसमें वे ईश्वर एवं गुरु के प्रति समर्पित थीं, वह अब समाप्त हो रहा था; वे कह सकती थीं, “मैं अपने घर जा रही हूँ।” मैंने सोचा ” काश मैं भी जा सकता!”

आनन्द माता की यही स्मृति मेरे मन में है : एक समर्पित शिष्या के रूप में, एक दिव्य आत्मा के रूप में जो इस धरती पर अपने गुरु के साथ रहने तथा उनकी सेवा करने के लिए आई थीं। उनका यही चित्र मेरे हृदय में अंकित है जो जीवन पर्यन्त बना रहेगा। जैसा कि गुरुदेव ने कहा है पूर्ण समर्पण और प्रेम ईश्वर एवं गुरुदेव के प्रति। यही मिसाल आनन्द माँ ने हम सब के लिए छोड़ी है।

श्री मृणालिनी माता :

60 वर्षों तक निरन्तर मुझे माँ एवं आनन्द माँ, फ़े तथा वर्जीनिया के साथ रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ था जैसा कि गुरुदेव आरंभ से उनके विषय में कहा करते थे, “दो शरीर एक प्राण” अर्थात एक के बिना दूसरे के विषय में सोचना असंभव था।

प्रिय आनन्द माँ के साथ मेरा प्रथम परिचय मेरे आश्रम में प्रवेश करने के पूर्व से ही था। जब मैं जूनियर हाईस्कूल में पढ़ती थी तब गुरुदेव सप्ताहान्त में मुझे एनसिनिटास हरमिटेज आने के लिए कहा करते थे। पहली बार वहाँ जाने पर ही मैं शनिवार को होने वाली सफ़ाई में सहायता करने लगी। इसी क्रम में मैं मेज़ पर रखे हुए एक कलात्मक हाथी पर जमी हुई धूल पोंछ रही थी। उसी समय गुरुदेव वहाँ पर पहुँच गए और एक पल के लिए देखने लगे। तभी उन्होंने मुझसे कहा था अच्छा होगा कि तुम खूब मन लगाकर काम करो क्योंकि वर्जीनिया के लिए सफ़ाई बहुत महत्त्वपूर्ण है।”

मैं माँ और आनन्द माँ को तब से जानती थी जब रविवार को मेरा परिवार सेनडियेगो में होने वाली टेंपल सर्विस में गुरुदेव का प्रवचन सुनने के लिए जाया करता था। प्रवचन के समय ये दोनों शिष्याएँ उनके निकट ही रहती थीं। हम उन्हें बराबर गुरुदेव के साथ देखा करते थे; एक भक्त का कथन हम सबको मान्य था : “आप जानते हैं जब वे तीनों वेदी की सीढ़ी से नीचे उतरते हैं तो चलते नहीं हैं बल्कि तैरते हुए प्रतीत होते हैं।” जैसा कि स्वामी आनन्दमय ने कहा था हम भी वैसा ही सोच रहे थे कि गुरुदेव के दोनों ओर देवदूत थे।

मेरे मन में आनन्द माँ के इसी रूप की कल्पना विद्यमान थी। सफ़ाई के समय मैं उनमें से एक देवदूत को प्रसन्न करने के उद्देश्य से पूरे ध्यान से सफ़ाई किया करती थी। थोड़ी देर बाद जब गुरुदेव चले गए, माताजी* ने ड्राइंग रूम में प्रवेश किया और जहाँ मैं सफ़ाई कर रही थी वहीं आकर ठिठक कर खड़ी हो गईं। उन्होंने मुझे ध्यान से देखा और शाबाशी देते हुए कहने लगीं : “बहुत अच्छा; बहुत अच्छा!” इस पर मैंने अनुभव किया कि मैं परीक्षा में पास हो गई हूँ।

ऐसी थीं आनन्द माँ। वे इसी कारण महान् थीं कि उनका प्रत्येक कार्य गुरुजी के माध्यम से सम्पन्न होता था। यही उनकी ईश्वर सेवा थी। जब मैं यहाँ आई थी तब वे गुरुदेव के निवास के क्वार्टर्स की और उन सभी बातों की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से ले चुकी थीं जिनकी ज़रूरत एक अवतार को भी इस संसार में रहकर काम करने के लिए होती है। उन्होंने गुरुदेव के निवास के सारे दायित्व मौन होकर सँभाल लिए थे। वे कभी-कभी गुरुदेव के खाने के लिए कोई व्यंजन भी बना देती थीं। विशेषकर जब कोई भारतीय अतिथि आता था तब गुरुदेव उनसे ‘रसगुल्ले’ बनाने को कह देते थे वे प्रायः कहा करते थे कि “भारत में कोई भी इतने स्वादिष्ट रसगुल्ले नहीं बना सकता।”

गुरुदेव की सेवा के माध्यम से उनका पूरा जीवन ईश्वर एवं गुरु की भक्ति के प्रति समर्पित था। गुरुदेव की महासमाधि के बाद भी उस गुरु भक्ति का अन्त नहीं हुआ। मैं नहीं जानती हूँ कि यह सोच समझ कर हुआ या अनायास ही स्वाभाविक रूप से। जैसा कि गुरुदेव ने हमसे कहा था : जब मेरा देहान्त हो जाएगा, यह संस्था ही मेरा शरीर होगी। यहाँ रहते समय तुमने मेरी सेवा एवं सहायता की अतः संस्था की सेवा करना।” आनन्द माँ ने तुरन्त उनके आदेश का पालन करना आरंभ कर दिया। उन्होंने विभिन्न कार्यों का अधिक से अधिक दायित्व अपने ऊपर ले लिया। उन्होंने सदैव अपने सभी कार्य अत्यन्त तत्परता से पूरे किए। जब गुरुदेव की सोसाइटी का दायित्व दया माँ के कन्धों पर आ गया, आनन्द माँ सदा उनके साथ रहीं और उसी प्रकार उनकी सहायता करती रहीं जैसे वे गुरुदेव के साथ करती थीं।

आप किसी भी काम की रिपोर्ट तैयार कर सकते हैं या प्रस्ताव बना सकते हैं, यह सोच सकते हैं कि आपने अपनी सूची में सभी आवश्यक तथ्य लिख लिए हैं। यदि उसे आप आनन्द माँ के पास भेजेंगे तो वे उसमें 10 बिन्दु और जोड़ देंगी। परन्तु यह केवल उनकी भक्ति थी। जैसा कि गुरुदेव हमसे कहा करते थे, “किसी भी करने योग्य कार्य को पूर्ण क्षमता से ही करो।” उन्होंने यह बात सदा याद रखी। जो भी कार्य वे करती थीं उसे उन्होंने हज़ार प्रतिशत समर्पित हो कर पूरा किया। गुरुजी ने हम सबको यही सिखाया था परन्तु आनन्द माँ सब काम सर्वोत्तम प्रकार से ही करती थीं।

उन्होंने अपने काम का आधार अपनी अन्तर्चेतना को ही माना था। जैसे कि उन आवासों का संरक्षण, जहाँ रहकर गुरुदेव ने अपने महान् कार्य पूरे किए, क्योंकि वे सामान्य घर न होकर ईश्वर के निवास थे। माउण्ट वाशिंगटन, एनसिनिटास हर्मिटेज, हॉलीवुड आश्रम, लेक श्राइन इन सबकी देखभाल तथा संरक्षण आज भी अत्यन्त तत्परता व सुन्दरता से हो रहा है क्योंकि उनके सौन्दर्य को बनाए रखना आनन्द माँ की प्राथमिकता थी। यह केवल इस कारण नहीं था कि “ये इमारतें सुन्दर हैं अतः उनकी देखभाल जरूरी है” बल्कि इस कारण संभव हुआ क्योंकि वे गुरुदेव का ही अंश हैं। उपवनों के प्रत्येक पेड़-पौधे की देखभाल अत्यन्त प्रेम से की गई क्योंकि उन्हें गुरुदेव ने अपने हाथों से अत्यन्त प्रेम से लगाया था। उनका सुदृढ़ संकल्प और अनथक प्रयास था : “उन्हें तब तक संरक्षित रखा जाए जब तक प्रकृति उन्हें जीवित रखे,” क्योंकि वे गुरुदेव का अंश थे।

बहुत बार यह कहा जाता है कि आनन्द माँ ने अपना जीवन पृष्ठभूमि के रूप में जिया था। सचमुच वे अत्यन्त शान्त थीं। परन्तु 1981 में जब भारत में अनेक प्रशासनिक समस्याओं को सुलझाने के लिए दया माता को आना था, उन्होंने आनन्द माँ को तथा मुझे भेजा था। उस बार वे अस्वस्थ हो गईं और वाईएसएस के डाइरेक्टर्स अत्यन्त चिन्तित हो उठे। तब यह निश्चय किया गया कि कुछ समय के लिए उन्हें कोलकाता के नर्सिंगहोम में ले जाया जाएगा। वहाँ वे कुछ समय विश्राम करेंगी तथा सब प्रकार के परीक्षण भी हो जाएँगे। इस बात की जानकारी गुप्त रखी गई जिससे उन्हें आराम मिल सके।

आश्रम में प्रतिदिन दोपहर होने पर जब सत्संग और मीटिंग समाप्त हो जाती थीं तब मैं उन्हें देखने के लिए नर्सिंगहोम जाती थी। एक दिन कुछ अत्यन्त प्रिय सदस्यों को यह पता चल गया कि वे कहाँ पर हैं; और जब मैंने उनके कमरे में प्रवेश किया तो देखा कि भक्तों की टोली ने उन्हें घेर रखा था। वे अपने बिस्तर पर बैठी हुई अत्यन्त सुन्दर सत्संग दे रही थीं। वे लोग उनसे अपनी आध्यात्मिक समस्याओं के लिए सहायता एवं सलाह माँग रहे थे। वे उन्हें अत्यन्त उपयोगी परामर्श दे रही थीं। मैं उनके निकट खड़े होकर एक घंटे तक सब सुनती रही। उन्हें इस रूप में देखना कितना सुन्दर था; मैंने स्वयं से कहा : “उनके पास जितना भी ज्ञान एवं प्रेम है वे पूर्ण रूप से उड़ेल रही हैं।” बाद में मैंने कहा : ” आनन्द माँ, अब आप सत्संग में भी सहायता दे सकती हैं।” ऐसा कभी संभव तो नहीं हो पाया, परन्तु मैंने उस दिन यह देख लिया कि उनकी आत्मा में कितना कुछ था जो उन्होंने गुरुदेव एवं जगन्माता के प्रेम से आत्मसात किया था। यह उनके जीवन का एक मात्र सत्संग था।

ऐसा जीवन जिसे श्रेष्ठतम रूप में इस संसार में जिया गया है हम सबको कुछ न कुछ प्रदान करने वाला है। निश्चित रूप से यह सत्य है कि ऐसा जीवन हमारी परमप्रिय आनन्द माँ ने जिया था जो गुरुभक्ति की मिसाल है। उन्हें सच्चा सम्मान देने के लिए हम देखें कि वे क्या हैं न कि यह देखें कि वे क्या थीं। वे गुरुदेव की उपलब्धियों से सदा जुड़ी रहेंगी, उनके कार्यों का एक अंश बनी रहेंगी। हमें उनकी मिसाल याद रखनी है और उनका अनुसरण करना है : ऐसी गुरुभक्ति जो निस्वार्थ सेवा के माध्यम से अपने सर्वोच्च रूप में अभिव्यक्त हुई है। आपने इस विषय में अनेक कहानियाँ सुनी होंगी कि उन्होंने गुरुदेव के लिए अपनी असीम शक्ति व समय दिया था। यह महत्त्वपूर्ण नहीं था कि उत्तरदायित्व कितना छोटा या बड़ा है। या कोई समस्या या कर्त्तव्य कितना तुच्छ या महत्त्वपूर्ण है, जो भी है वह ईश्वर तथा गुरु से जुड़ा हो। आनन्द माँ ने इस प्रकार का जीवन जिया था। चाहे वे प्रशासनिक कर्त्तव्य से संबंधित कार्य करती थीं या मंदिर में प्रवचन के लिए जाने से पहले गुरुदेव की कार धोने व पॉलिश करने की प्रक्रिया में व्यस्त रहती थीं दोनों अवसरों के कर्त्तव्य सदैव वे एक ही प्रकार की गुरु भक्ति की भावना से निभाती थीं।

हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने तरीके से उनकी शारीरिक उपस्थिति की कमी अनुभव करेगा। वह मेरी बहन के समान थीं, गुरुदेव की शिष्या थीं, आध्यात्मिक सलाहकार थीं, और एक आदर्श थीं। वे मेरे हृदय तथा मेरी आत्मा में सदा बसी रहेंगी, वह भी इस प्रकार से कि मैं जानती हूँ कि इसका आरंभ केवल इस जीवनकाल में संभव नहीं है। गुरुदेव कहा करते थे कि हममें से जो लोग उनके साथ आज थे वे अनेक पूर्व जन्मों में भी उनके साथ थे। इस प्रकार के बन्धन को मृत्यु भी छिन्न-भिन्न नहीं कर सकती है। नाहीं यह धागा किसी और के तोड़ने से टूटेगा। आप हमेशा जान जाएंगे, जब आप भली प्रकार सेवा करते हैं तो आप गुरुदेव के देवदूत बन जाते हैं जैसे कि माँ और दया माँ सहित और चेले भी थे जिनके विषय में गुरुदेव ने स्वयं कहा है : “ईश्वर ने मेरे पास देवदूत भेजे हैं।” इसके बाद वे हममें से हर एक की ओर देखकर कहते थे : “अब, तुम सब लोगों को देवदूतों की तरह आचरण करना है।”

मैं अपनी परमप्रिय आनन्द माँ के प्रति प्रेम और प्रशंसा के दो शब्द कह कर स्वयं को अत्यन्त सम्मानित अनुभव कर रही हूँ। वे ईश्वर एवं गुरु की दृष्टि में अतिशय ऊँचाई प्राप्त कर चुकी हैं। वे हम सब के साथ दैवी मित्रता में सबसे बढ़-चढ़ कर हैं — जय गुरु!

श्री श्री दया माता :

प्रिय आत्मन्, मेरा मन अनेक वर्ष पूर्व हमारे बचपन के दिनों की यात्रा कर रहा है जब हम अपनी माँ के साथ थे। आनन्द माँ और मैं 89 वर्षों तक साथ-साथ रहे हैं। मैं उनसे कुछ बड़ी हूँ — जब हम स्कूल जाते तब वह हमेशा मेरा हाथ पकड़े रहती थीं, बचपन से वे दयामाता की अनुगामिनी थीं।

मैंने स्वप्न में भी यह नहीं सोचा था वे यहाँ पर भी उन्हें ले आएँगे। हम लोगों ने गुरुजी को सर्वप्रथम साल्ट लेक में असंख्य श्रोताओं के समक्ष प्रवचन देते हुए सुना था। हमारी माँ गुरुदेव का प्रवचन सुनने के लिए हमें ले गई थीं; जब हम एक बड़े हॉल के कोने में खड़े होकर, उन्हें दूर से देख रहे थे, हम सभी ने अपनी आत्मा में गहरी हलचल अनुभव की थी। इसके बाद कुछ महीने ही बीते थे कि मुझे माउण्ट वाशिंगटन आने का अवसर मिल गया। उस समय मैं 17 वर्ष की थी। मैं उस उल्लास एवं शान्ति को नहीं भूल सकती हूँ जो मेरे हृदय में थी। उस समय आनन्द माँ 15 वर्ष की थीं; वे अब भी मेरे साथ की इच्छुक थीं। उन्होंने और मेरे प्रिय भाई रिचर्ड ने 1933 में आश्रम में प्रवेश किया। जैसे-जैसे वर्ष व्यतीत होते गए गुरुजी ने मेरी माँ के सभी बच्चों को अपने निकट बुला लिया। अब डिक, आनन्द माँ, मेरा छोटा भाई और मैं उनके साथ थे। इस प्रकार की सुखद स्मृतियाँ हैं! वे अति सुन्दर दिन थे क्योंकि जो उदाहरण गुरुदेव ने हमारे सामने रखा था हम सभी उससे प्रेरित थे।

गुरुदेव का अनुशासन कड़ा था और आनन्द माँ ने उसका पालन दृढ़ता एवं पूरी लगन से किया था। इसके पश्चात जब मैं अध्यक्षा बन गई तो वह सर्वप्रथम थीं, जिन्होंने पिछले वर्षों में, सब प्रकार के कर्त्तव्य निभाने में पूरी तरह से मेरी सहायता की। जब मैंने यूरोप, भारत, मैक्सिको, जापान तथा अन्य देशों की यात्रा की थी वे मेरी सहायता के लिए मेरे साथ रहीं। मेरे हृदय में उनका अनमोल प्रेम तथा मैत्री संरक्षित हैं।

मैं उनकी डायरी से एक विचार आपको बता रही हूँ। 11 अप्रैल, 1950 को उन्होंने लिखा था: ” सचमुच आश्चर्य है! आज शाम को गुरुदेव ने मुझे बताया है कि उन्होंने मुझे बोर्ड ओफ़ डाइरेक्टर्स की सदस्या के रूप में सेवा के लिए चुना है। मैंने उनसे कहा कि कभी भी मैंने इस सम्मान की आशा नहीं की थी क्योंकि मैं समझ रही थी कि एक परिवार का एक व्यक्ति ही सेवा करेगा। और स्वाभाविक रूप में इसके लिए फ़े एकदम सही है। परन्तु उन्होंने कहा कि उन्हें यह ठीक नहीं लगा कि मैं बोर्ड में नहीं हूँ। और राजर्षि से बात करके उन्होंने मुझे नियुक्त कर दिया। इस चयन के कारण मैं स्वयं को सम्मानित अनुभव कर रही हूँ, परन्तु मैं इस गौरव की खुशी नहीं मना रही हूँ। वास्तव में इन चीज़ों का मेरे लिए, कोई अर्थ नहीं हैं।

“गुरुदेव गहन विचार में डूबे हैं। अनेक आश्चर्यजनक सत्य उनके माध्यम से व्यक्त हुए हैं : ईश्वर के स्वप्न में हमारा अस्तित्व क्यों व कहाँ है। जो जीवन जीने के लिए हम यहाँ पर आए हैं उसके विषय में गुरुदेव ने स्पष्ट कह दिया है कि हम सब ईश्वर को खोजने के उद्देश्य से यहाँ हैं और क्यों का उत्तर यही है कि ईश्वर ने हमारा सृजन किया है।”

और बाद में उन्होंने कहा : “गुरुदेव ने अपने कुछ शिष्यों से बात करने के दौरान कहा था : मैं तुममें से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से गुज़र रहा हूँ। सन्तों ने सदा ही कहा है कि भक्ति से ही सर्वप्रथम ईश्वर की प्राप्ति होती है। जो ईश्वर प्राप्ति के इच्छुक हैं वे उसकी खोज करें।” मैं ईश्वर को पाने के इच्छुक लोगों में से एक हूँ और मैं भक्ति के द्वारा उसे खोज रही हूँ। इन विचारों से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि माताजी ने किस प्रकार का जीवन जिया था।

आज का दिन मेरे लिए पावन है। तथा यह दिन दुःखदायी भी है क्योंकि मेरी जो प्यारी बहन व सखी मेरे साथ 89 वर्षों से थीं वे आज मेरे साथ नहीं हैं। उनका साथ छूट गया है। लेकिन मैं चलती जाऊँगी; मैं पीछे नहीं हटूंगी। जिस प्रकार से आप लोगों ने उनके बारे में अपने विचार व्यक्त किए, अत्यन्त मर्मस्पर्शी हैं। आपके विचार सुनकर मेरी आँखें भर आईं हैं। आप सब लोगों को ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त हो। एक बात मैं आप सभी लोगों से कह रही हूँ: यह अवसर हममें परिवर्तन लाए। सन्तों के जीवन के उदाहरण का उद्देश्य स्वयं में परिवर्तन लाना है न कि किसी अन्य को परिवर्तित करना। स्वयं से पूछिए : क्या मैं प्रेम से परिपूर्ण हूँ? क्या मैं दयालु हूँ? क्या मेरा मन शान्त है? क्या मैं उदारता एवं प्रेम का प्रकाश फैला रहा हूँ? गुरुदेव ऐसे ही थे; ऐसी ही शिक्षा उन सब लोगों ने दी जो हमसे पूर्व चले गए — राजर्षि, ज्ञानमाता, दुर्गा माँ, डॉ. लुइस व अन्य ऐसे ही लोग — और अब हमारी परमप्रिय आनन्द माँ। मन में किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं सदा यही विचार करते रहना : “सेवा के लिए मैं क्या कर सकती हूँ?” जिस सर्वोत्तम आनन्द को उन्होंने जान लिया था, जिस सर्वोच्च आनन्द को हम सबने जाना है वह निस्वार्थ सेवा से प्राप्त होता है। न कि केवल अपने लिए सोचते रहने से, ‘मैं’ और ‘मेरा’ करने से। “जिस क्षण यह “मैं” मर जाएगा जैसा कि गुरुदेव ने कहा है, “तब पता चल जाएगा कि मैं कौन हूँ।” माताजी ऐसी ही थीं। उन्होंने सबसे पहले अपने बारे में कभी सोचा ही नहीं। उन्होंने सदा गुरुदेव की सेवा की, हर वस्तु की देखभाल की, अपना काम पूरा किया और अपने मधुर प्रेमपूर्ण ढंग से अपनी बहन दया माता की सेवा में लगी रहीं।

आपकी प्रेममय हार्दिक श्रद्धांजलि के लिए मैं आप सबको धन्यवाद देती हूँ। ईश्वर आप सब पर कृपा करें।

1. अपने जीवनकाल के दौरान परमहंसजी अक्सर आनन्द माता को माताजी (“पूज्य मां” के लिये संस्कृत शब्द) कहकर संबोधित किया करते थे।

2. सी. रिचर्ड राइट, जिन्होंने 1935-36 में परमहंस योगानन्दजी की भारत यात्रा के दौरान उनके सहायक के रूप में कार्य किया, जैसाकि योगी कथामृत में वर्णित है।

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