श्री श्री दया माता के जन्म दिवस की 100वीं वर्षगाँठ पर श्री श्री मृणालिनी माता का संदेश

Daya Mata smiling

प्रिय आत्मन्,

हमारी प्रिय श्री श्री दया माता के जन्म दिवस की 100वीं वर्षगाँठ का आनंदमय अवसर स्वर्ग में भी अवश्य ही मनाया जा रहा होगा जहाँ अब वे निवास कर रही हैं, तथा हम सबके हृदयों में भी, जो ईश्वर के प्रति उनके भक्तिपूर्ण दिव्य जीवन एवं ईश्वर की संतानों के लिए उनकी असीम दया से प्रेरित और परिवर्तित हुए हैं। दया माताजी की ईश्वर से समरस हुई चेतना से प्रचुरता से प्रवाहित हुए तथा सभी को ईश्वर के और निकट लाने वाले प्रेम एवं संवेदनशीलता को सभी देशों और धर्मों के लोगों ने प्रतिसाद दिया है।

शास्त्रों में वर्णित महान संतों की तरह ही दया माताजी में भी अपने बाल्यकाल से ही ईश्वर को जानने और उनसे सम्पर्क करने की तीव्र ललक थी। जब उन्होंने पहली बार हमारे गुरु श्री श्री परमहंस योगानन्द को देखा और उन्हें बोलते हुए सुना, तो उन्होंने सोचा, “ये ईश्वर से वैसे ही प्रेम करते हैं जैसा मैंने हमेशा ही उनसे प्रेम करना चाहा था। ये ईश्वर को जानते हैं। मैं इनका ही अनुसरण करूँगी!” उस प्रेम को पूरी तरह अपने जीवन में उतारना उनके जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य बन गया था; और क्योंकि उन्होंने कभी भी किसी भी वस्तु को उन्हें अपने लक्ष्य से विचलित नहीं करने दिया, वे गुरुजी की आध्यात्मिक विपुलता को पूरी तरह प्राप्त कर सकीं और इस विश्व में ईश्वर के आलोक एवं आशीर्वादों का इतना निर्मल माध्यम बन सकीं। उनके आस-पास रहने वाले हम सभी को उन्होंने उनकी विनम्रता, गुरुजी की शिक्षाओं के प्रति उनकी ग्रहणशीलता, तथा ईश्वर के विचार में लीन रहने के उनके अनन्य भाव से सदा ही प्रेरित किया। जीवन की नित्य चुनौतियों और गुरुदेव द्वारा उनके कन्धों पर डाले अधिकाधिक उत्तरदायित्वों के बीच भी, उन्होंने ईश्वर के प्रति संपूर्ण विश्वास तथा समर्पण से उत्पन्न आंतरिक आनंद को ही निःसृत किया।

मेरी नहीं, आपकी ही इच्छा पूरी हो,” सभी परिस्थितियों में यही उनका आदर्श था। उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत पहचान स्थापित करना नहीं चाहा, क्योंकि वे अपने गुरु की केवल एक निष्ठावान् शिष्या बनना चाहती थीं; और उनके सम्पूर्ण नेतृत्व काल में उनके प्रत्येक निर्णय का यही मापदंड होता था, “गुरुजी होते तो वे क्या चाहते?” अपने पूरे अस्तित्व के साथ उन्होंने गुरुजी के मार्गदर्शन को आत्मसात् किया तथा उनके स्वभाव-उनकी शक्ति एवं उनकी अनन्त सहृदयता दोनों को, अधिकाधिक रूप से प्रदर्शित किया। गुरुजी के आदर्शों को निर्भीक रूप से थामे रखने के साथ ही, वे सभी के प्रति दयालु और संवेदनशील थीं। गुरुजी के इस जगत् को छोड़ने से कुछ समय पहले, जब दया माताजी ने उनसे अपनी यह चिंता व्यक्त की कि उनके बिना उनके शिष्यगण इस काम को कैसे आगे बढ़ा पायेंगे, तो गुरुजी ने उत्तर दिया, “मेरे जाने के बाद, केवल प्रेम ही मेरा स्थान ले सकता है। वे शब्द दया माताजी के हृदय में सदा अंकित रहे, और इन्हें उन्होंने अपने जीवन में उतारा जब तक कि वे स्वयं वह प्रेम नहीं बन गईं, जिसने गुरुजी के जाने के बाद उनके आध्यात्मिक परिवार का पोषण किया, तथा असंख्य भक्तों को उनकी आश्रयदायी उपस्थिति का स्पष्ट आश्वासन दिया।

गुरुदेव के विश्वव्यापी परिवार की माँ के रूप में, दया माताजी ने हम सभी का बड़े जतन से ध्यान रखा। साठ से भी अधिक वर्षों तक एक साथ गुरुजी की सेवा में रहते हुए हमारे बीच की दिव्य मित्रता को और गुरुजी के साथ उनकी आन्तरिक समरसता से उनके द्वारा प्रवाहित ज्ञान एवं प्रेम को मैंने ईश्वर के सर्वाधिक अनमोल उपहारों में से एक के रूप में अपने ह्रदय में संजो कर रखा है। ईश्वर-भक्ति तथा ईश्वर-सेवा की भावना में सदा प्रज्ज्वलित रहकर उन्होंने वही उत्साह दूसरों में भी जाग्रत करने का प्रयास किया; और उनके प्रति सम्मान प्रकट करने का सर्वोच्च तरीका यही है कि हम गुरुजी द्वारा दी गयी साधना का एक नवीन उत्साह के साथ अनुसरण करें। मैं प्रार्थना करती हूँ कि उनका उदाहरण आपको यह स्मरण कराये और प्रोत्साहित करे, कि आपके प्रयासों और गुरुजी के आशीर्वादों के द्वारा, आप भी उस दिव्य आनंद तथा परम-संतुष्टिदायक प्रेम को जान सकते हैं जो उनके जीवन में रचा-बसा था। जय गुरु, जय माँ!

ईश्वर एवं गुरुदेव के आशीर्वादों के साथ,

श्री श्री मृणालिनी माता

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