स्वामी श्यामानन्द गिरि : ईश्वर एवं गुरु के आध्यात्मिक योद्धा

श्री दया माता का सम्बोधन, स्वामी श्यामानन्द गिरि की स्मारक सेवा पर, जो 31 अगस्त, 1971 को  योगदा  सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय लॉस एंजिलिस कैलिफ़ोर्निया में संचालित की गई।

आज प्रातः हम परमहंस योगानन्दजी के एक निष्ठावान भक्त और आध्यात्मिक योद्धा, स्वामी श्यामानन्द गिरि [1], को श्रद्धांजलि देने हेतु एकत्र हुए हैं, जो कि भारत में उनके कार्य के (और विश्व भर में) पिछले बारह वर्षों से रक्षक रहे हैं।

श्री दया माता राँची में ध्यान करती हुईं, जनवरी 1959

स्वामी श्यामानन्द का जन्म भारत के उत्तर प्रदेश भाग में हुआ, वही प्रान्त जहाँ परमहंस योगानन्द का जन्म हुआ। बहुत बचपन से ही वह भारत में मन्दिरों के वातावरण और साधुओं की संगति की खोज में रहते थे। जब श्यामानन्द ग्यारह वर्ष के थे, तब एक सम्मानित साधु उनके घर आये और इस बच्चे में गहरी रुचि दिखाई और इस गहन आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले बालक के प्रति प्रेम व्यक्त किया। श्यामानन्द में उस समय सांसारिक लक्ष्यों को त्याग, साधु का अनुसरण करने की प्रबल लालसा थी। लेकिन ऐसा होना नहीं था। 

नौ वर्ष की आयु में पिता के निधन के बाद (उनकी माता का देहांत तभी हो गया था, जब वह तीन वर्ष के थे) वह अपने पिता के निकटतम मित्र, राजा बहादुर सती प्रसाद गर्ग के परिवार के साथ कोलकाता के निकट महिषादल में रहने लगे। यह भारत का एक राजपरिवार था, और वे उनके निवासियों पर उदारतापूर्वक शासन करता थे। श्यामानन्द को प्रेमपूर्वक गर्ग परिवार के सबसे बड़े बेटे की तरह पाला पोसा गया।

महिषादल में शिक्षा प्राप्त करते हुए, परिपक्व होने पर, उन्होंने कानून की पढ़ाई की। उनका विवाह उनके बचपन की प्रिय मित्र, गर्ग परिवार की बेटी से हुआ। लेकिन उनके मानस पटल की पृष्ठभूमि पर सदैव ईश्वर के प्रति गहन लालसा बनी रही। वह अक्सर स्वयं से पूछते, “मैं इस विशिष्ट वातावरण में क्यों हूँ? यह वह जीवन नहीं है, जो मेरे लिए पूर्वनिर्धारित है।”

 उनके विवाह से आशीर्वाद स्वरुप दो पुत्रियों का जन्म हुआ, अभी वे शिशु ही थीं कि श्यामानन्दजी की पत्नी बीमार पड़ीं और उनका देहांत हो गया। वह बीस वर्ष की थीं। उनका अपनी पत्नी के प्रति समर्पित श्रद्धा भाव और आदर, उनके असाधारण गुणों में से एक है। मुझे उनके विषय में याद आता है, मैंने अपनी यात्राओं में अपने समस्त अनुभवों में किसी अन्य पुरुष में उनके बराबर यह गुण नहीं देखा। उनका उदात्त पति-पत्नी सम्बन्ध एक सटीक अभिव्यक्ति था, जिसके बारे में गुरु परमहंस योगानन्दजी अक्सर बताते थे कि जो भारत का अनुपम आदर्श है।

पत्नी के देहांत के साथ ही, होने वाले युवा बैरिस्टर के जीवन का वह अध्याय वहीं समाप्त हो गया। वह अब और अधिक अनुराग से ईश्वर की खोज में लग गए। विडंबना यह है कि यह वही समय था (1935-1936) जब परमहंसजी भारत में थे और श्यामानन्दजी पुरी में ही थे, जब गुरुदेव वहाँ अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि की महासमाधि के बाद शोक मना रहे थे; स्पष्टतया अभी भी उनके मिलने का समय नहीं आया था।

संसार को त्याग, श्यामानन्द ने अगले 23 वर्ष घुमक्कड़ साधु की तरह सन्तों को खोजने और भारत के आश्रमों व तीर्थ स्थलों की यात्रा करते हुए बिताए। उन्होंने एक सन्तवत स्वामी के लिए आश्रम बनवाया और दस वर्ष का अच्छा खासा समय वहाँ बिताया लेकिन उन्होंने कभी उनसे दीक्षा या संन्यास नहीं लिया।

श्यामानन्द मेरी 1958 की भारत यात्रा के दौरान मुझसे पहली बार मिलने आए, तब उन्होंने हाल ही में योगी कथामृत पढ़ी थी। वह हमारे महान् गुरु परमहंस योगानन्द के अद्भुत जीवन से बहुत प्रभावित और आध्यात्मिक रूप से उत्साहित थे। उस समय तक उन्होंने ज्ञान-योग, ज्ञान और विवेक का मार्ग, का अनुसरण किया था, स्वामी विवेकानन्द, विश्वप्रसिद्ध ज्ञान योगी, के उदाहरण अनुरूप, जिन्हें उन्होंने अपने आध्यात्मिक आदर्श के रूप में चुना था। श्यामानन्द ने मुझसे  कहा, “मैंने बहुत बहुत वर्षों से इस मार्ग का अनुसरण किया है;  लेकिन फिर भी मेरी साधना में कुछ कमी है।” जब श्यामानन्द ने मुझे अपनी खोज के विषय में थोड़ा सा बताया, मैं जान गयी कि क्या कमी थी; यह वह गुण था जिसमें अधिकांश मानव जाति में कमी है : ईश्वर-प्रेम। इस आवश्यक घटक पर विश्व के महान् धर्मों में पर्याप्त ज़ोर नहीं दिया जाता। अतः मनुष्य अनुष्ठानों और धर्मशास्त्रीय चर्चाओं में रम जाता है। पश्चिम में बहुत से ईश्वर से डरते हैं, उन्हें महान न्यायाधीश समझते हैं, और सोचते हैं कि जब हम संसार से जाएँगे तो वे हमारी छटनी करेंगे कि हमें स्वर्ग अथवा नरक के किस भाग में ले जाएँगे। यह गुरुदेव की ईश्वर की संकल्पना नहीं थी। उनका प्रभु प्रेम का था, करुणा और क्षमा का, एक ऐसा जिसकी खोज हम इसलिए नहीं करते कि हमें उससे कुछ चाहिए, बल्कि इसलिए कि हम उसे प्रेम करते हैं, और हम उसके अपने हैं।

इन्हीं विचारों के अनुरूप मैंने श्यामानन्द से बात की। उन्होंने बाद में आश्रम के कुछ श्रद्घालुओं को बताया, “उनका सान्निध्य छोड़ने के बाद मैं जान गया कि उन्होंने उस अंश की, जिसकी कमी को मैं ढूँढ रहा था, पूर्ति कर दी है : मुझे ईश्वर के प्रति अधिक लालसा, अधिक प्रेम अनुभव हुआ।” 

मैं उस समय की, भारत में हमारी समस्याओं के बारे में संक्षिप्त में बताना चाहूँगी। गुरुदेव ने देहत्याग से पहले मुझसे कहा था, “मैं वापस भारत नहीं जा पाऊँगा, लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम वादा करो कि तुम वहाँ के हमारे कार्यों में वैसी ही रुचि लोगी जैसी मुझे है, और तुम योगदा सत्संग सोसाइटी के लिए भारत में वह सब करोगी जो मैं करता।” मैंने उन्हें वचन दिया। मैं अंततः 1958 में पहली बार अपनी आध्यात्मिक  मातृभूमि की यात्रा पर आ सकी।   

उस यात्रा के पहले भाग में ही मेरे सभी स्वप्न बिखर गए, क्योंकि गुरुजी का कार्य बुरी तरह जर्जर हो चुका था। क्रिसमस की पूर्व संध्या पर मैं कुछ भक्तों के साथ आश्रम में थी और मेरा मन भारी था क्योंकि  उनमें से किसी में भी वह उत्साह नहीं था जिसकी मुझे आशा थी। मैं चुपचाप उत्सव छोड़कर ऊपर अपने छोटे से कमरे में चली गयी। मैंने लम्बे समय तक गहरा ध्यान किया, और आँसुओं से बुरी तरह रोई  क्योंकि मैं जानती थी कि किसी निष्ठावान, सक्षम भक्त जो कि इसी देश का निवासी हो, उसकी सहायता के बिना भारत में गुरुजी की संस्था के लिए कुछ भी सार्थक संपन्न कर पाना असंभव होगा। उस रात की मेरी प्रार्थना का उत्तर पाँच जनवरी को मिला, जब हम गुरुजी का जन्म दिवस हमारे दक्षिणेश्वर आश्रम में मना रहे थे। मैंने श्यामानन्द को श्रोतागण में बैठे देखा। मैं उनसे थोड़ी सी देर के लिए मिली थी और बात की थी, वह भी केवल एक बार। लेकिन इस बार मैंने उन्हें भीड़ के दाहिनी ओर बैठे देखा इतने शांत, इतने अत्यधिक स्थिर, ध्यान में मग्न। वह असाधारण थे, और मैंने सोचा, “यह हैं वे, जो ईश्वर को गहनता  से खोज रहे हैं।”

श्री दया माता 1964 में वाईएसएस के दक्षिणेश्वर आश्रम के मन्दिर में क्रियायोग दीक्षा समारोह संचालित करते हुए। स्वामी श्यामानन्द दाहिनी ओर दिख रहे हैं।

ध्यान सत्र के बाद वह आगे आए, अपना पुनः परिचय दिया और कहा, “जब आप राँची जाएँ, मैं आपके दल के साथ चलना चाहूँगा।” यह मेरी राँची की पहली यात्रा होनी थी, जहाँ गुरुदेव ने अपना बालकों का विद्यालय स्थापित किया था। मैंने उन्हें साथ आने की सहमती दे दी।

उसके बाद आने वाले दिनों में, उनका विचार मेरे मन की पृष्ठभूमि में बना रहा। वह राँची अपनी कार से गए  और हम वहाँ उनके कुछ घण्टे बाद पहुँचे। अगली सुबह उषाकाल में मैं उठ गयी और उस आश्रम के मैदान में घूम रही थी। मैं उन दिनों के बारे में सोच रही थी, जब गुरुजी ने इस स्कूल की स्थापना की और वे मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने हेतु वहाँ रहते थे। तब वहाँ एक हज़ार विद्यार्थी थे, खुले वातावरण में बैठ कर अपनी पढ़ाई करते थे। मैंने उसकी तुलना उससे की जो मैंने वहाँ पहुँच कर देखा मुट्ठी भर विद्यार्थी और बुरी तरह उपेक्षित आश्रम। मेरा मन भारी था। तब मैंने सामने से उसी सज्जन व्यक्ति को अपनी ओर आते देखा, जिसने मेरे मन को इतना प्रभावित कर रखा था। हमने एक दूसरे का अभिवादन किया और मैदान में साथ-साथ टहलने लगे और बातें करने लगे। मैंने उन्हें परमहंसजी के भारत में उनके कार्यों के सपनों के बारे में और कुछ हृदय की पीड़ा के विषय में बताया। ऐसा करते हुए मैं सोच रही थी कि एक पूर्णतया अनजान से मैं इस तरह क्यों बात कर रही थी और फिर भी लग रहा था कि वह अनजान नहीं है। ऐसा लगा कि गुरुदेव सम्बन्धी प्रत्येक शब्द को उन्होंने आत्मसात किया और प्रतिक्रिया दी। ऐसा भी लगा कि वह कुछ समझ गए मेरे भारी बोझ को।

बाद में मुझे पता चला कि एक दिन वह आश्रम आए थे और उन्होंने मुझे वेदी के समक्ष ध्यान करते देखा, और अश्रु मेरे गालों पर बह रहे थे, मैं ईश्वर से मार्गदर्शन हेतु प्रार्थना कर रही थी क्योंकि भारत में मुझे लगभग एक वर्ष हो चुका था और उपलब्धि कुछ भी नहीं थी। उन्होंने बताया कि उसी पल उन्होंने प्रण लिया कि वह सब कुछ त्याग देंगे और इस पथ का अनुसरण करेंगे। 

बीते बारह वर्षों के दौरान उन्होंने उस प्रण से भी अधिक निभाया; उन्होंने न केवल इस पथ का अनुसरण किया, बल्कि इसकी निष्ठापूर्वक सेवा भी की। परमहंसजी के 1920 में अमेरिका गमन के बाद धीरे-धीरे भारत में नष्ट होती संस्था को परिवर्तित कर दिया, जिसके भारत भर में कई शाखा केन्द्र और युवाओं की शिक्षा हेतु कई स्कूल, किन्डर्गार्टन (बालवाड़ी) से कॉलेज तक, निर्मित किए – सुदूर गाँवों में जहाँ अन्य रूप से बच्चों की शिक्षा प्राप्ति के अवसर नहीं होते, वहाँ हमने विद्यालय आरम्भ किए। 

स्वामी श्यामानन्द भारत भर में हमारे कार्यों की रीढ़ की हड्डी थे। कार्य सेवा हेतु वह भारत में या विदेश में जहाँ कहीं भी यात्रा पर गए वहाँ उन्होंने न केवल लोगों का सम्मान पाया बल्कि उनका गहरा प्रेम भी प्राप्त किया। उनमें प्रेम करने की विराट क्षमता थी; उसका आदान प्रदान सहज ही था।

श्यामानन्द, हमारे संतवत दूसरे अध्यक्ष, राजर्षि जनकानन्द के जीवन से बहुत प्रेरित थे। राजर्षि उनके आदर्श बन गए और मैं तो कहूँगी कि वह अपने ढंग से भारत में राजर्षि के प्रतिरूप थे।

स्वामी श्यामानन्द केवल प्रभु एवं गुरु के कार्य हेतु जिए। सेवा के प्रति इतनी क्षमता और उत्साह मैंने विरले ही देखा है। यहाँ तक कि अपने जीवन के अंतिम दिनों तक भी, भारत में करने वाले शेष कार्यों के अतिरिक्त उन्होंने अन्य बातें न के बराबर कीं। उन्होंने उस मिशन के विकास के लिए कई लक्ष्य निर्धारित कर रखे थे। और एक शाम, जब हम उनकी बीमारी के दौरान उनसे बातें कर रहे थे, उन्होंने कहा, “यदि अब मुझे इस देह को त्यागना ही है, तो मैं इस एक इच्छा के साथ त्यागूँगा : कि मैं पृथ्वी पर शीघ्र लौटूँ ताकि गुरुजी के कार्यों को आगे जारी रख सकूँ। यही मेरे हृदय की ज्वलंत इच्छा है।”

स्वामी श्यामानन्द के अंतिम चित्रों में से एक, मदर सेंटर, 1970

एक अवसर पर जब वह अस्पताल में थे मैंने उनके कक्ष में प्रवेश किया और पाया कि अश्रु उनके गालों पर बह रहे थे। वह आसानी से रोने वाले व्यक्ति नहीं थे। मैं चलकर बिस्तर के पास पहुँची और पूछा, “क्या बात है?” जैसे ही मैं और निकट हुई और देखा कि उनके चेहरे पर परमानन्द के भाव हैं, मैं जान गयी ये दुःख के अश्रु नहीं, बल्कि आनन्द के हैं। उनका मन इतना अन्तर्निहित था कि उन्हें मेरी उपस्थिति का भान बहुत धीरे हुआ। और तब उन्होंने मुझसे कहा, “ओ माँ! अभी मुझे एक अद्भुत अनुभव हुआ है। जैसे मैं यहाँ इस बिस्तर में लेटा हूँ, यह जानते हुए कि अब मेरे गिने-चुने दिन ही बाकी हैं, और यह ईश्वर की इच्छा नहीं है कि मैं इस बीमारी से उबरूँ, मेरे हृदय में बस एक प्रार्थना है: ‘प्रभु, मैं बस आपसे प्रेम करना चाहता हूँ। इस इच्छा को पूरा कर दो! मैं बस आपसे प्रेम करना चाहता हूँ।’ जैसे ही मैंने प्रार्थना की, अचानक इतने प्रेम, इतने आनंद, ने मुझे घेर लिया ओ माँ, इतना आनन्द! और तब बाबाजी आए। वह समग्र प्रेम हैं; ओह! इतने प्रेममय! मैं सर्वथा उस प्रेम से सराबोर हूँ। कितना आनंद, ओह मुझे कितना आनंद मिला है। मैं जानता हूँ केवल यही जीवन का लक्ष्य है।”  

चाहे हम संसार में रहें या मठों आश्रमों में — वास्तव में, जीवन का अंतिम ध्येय प्रभु के लिए काम करना और अपने कार्यकलापों को उन्हें समर्पित करना ही नहीं है बल्कि प्रभु के प्रति ऐसा प्रेम विकसित करना है कि हमारे प्रत्येक विचार में वह हमारे दैनिक साथी रहें। यह आदर्श स्वामी श्यामानन्द गिरि में पूर्णतः पुष्पित हुआ। वह इस संसार में ऐसे जिए जैसे कम ही जीते हैं। उनकी समस्त गतिविधियाँ इस विचार के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रहीं : “मेरे प्रभु, मैं किस प्रकार आपकी सेवा करूँ?”

स्वामी श्यामानन्द गिरि ने हम सभी — जो उन्हें जानते थे — के हृदय में एक बड़ी रिक्तता छोड़ी है। उन्होंने यहाँ और भारत में हमारे कार्यों में भी रिक्तता छोड़ी है। जैसा कि आप सब जानते हैं, वह परमहंस योगानन्द के कार्य के अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के निदेशक बोर्ड के सदस्य थे, और भारत में हमारी संस्था योगदा सत्संग सोसाइटी के महासचिव/खजांची भी थे। लेकिन हम सभी जानते हैं कि एक दिन हममें से प्रत्येक को उस दिव्य बुलावे का उत्तर देना है। यह शोक का समय नहीं है। यह एक खालीपन है, फिर भी हम एक महान् ख़ुशी अनुभव कर रहे हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि वह जगन्माता की बाहों में विश्राम कर रहे हैं, जिन्हें वह इतने प्रेम से पूजते थे, और उन्हें, जिनको अपने बाल्यकाल के आरम्भिक वर्षों से ही अपना जीवन समर्पित कर दिया था।

अब हम आरोहण संस्कार करेंगे जो भारत में आत्मा के देह त्यागने पर किया जाता है, और जो दाह संस्कार के समय किये जाने वाले प्राचीन वैदिक संस्कार का हिस्सा है। भारत के धर्मग्रन्थ कहते हैं कि अग्नि एक महान् शोधक है। आपके सम्मुख प्रज्ज्वलित अग्नि प्रतीक है नश्वर देह के दाह संस्कार की, अजर अमर आत्मा को दैहिक बंधनों से मुक्त करने की, ताकि वह अपने ईश-धाम की ओर स्वर्गारोहण कर सके। 

[श्री दया माता ने प्रतीकात्मक अग्नि प्रज्ज्वलित कर आरोहण संस्कार किया और पावन वेदों से एक प्रार्थना भी इस अवसर पर की। ध्यान के साथ सत्र जारी रहा, ध्यान किया; फिर परमहंस योगानन्दजी की कविता, “दाउ एंड आई आर वन” पढ़ी गई, फिर ईश्वर के मातृ स्वरुप के प्रति एक भक्ति पद गाया गया और फिर समापन प्रार्थना :] 

हे परमपिता, जगन्माता, सखा, प्रियतम प्रभु; भगवान् कृष्ण, जीसस क्राइस्ट, महावतार बाबाजी, लाहिड़ी  महाशय, स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी, गुरुदेव परमहंस योगानन्द, सभी धर्मों के सन्त महानुभाव, हम आप सब को प्रणाम करते हैं।  

जगन्माता, आप हमारा जीवन हैं, आप हमारा प्रेम हैं, आप समस्त मानवजाति द्वारा खोजे जाने वाला परम – ध्येय हैं। आपका प्रेम हमारी भक्ति की वेदी पर सदैव आलोकित रहे और हम वही प्रेम सभी हृदयों में जागृत कर सकें। 

स्वामी श्यामानन्द गिरि की आत्मा को आशीर्वाद दें। अपने विराट प्रेम के साथ एक करें। स्वर्गारोहण  करती उनकी आत्मा का मार्गदर्शन और रक्षा करें। उन्हें अपनी करुणामयी, मृदुल और ज्ञान भरी बाहों में विश्राम करने दें। वह आपके बालक हैं, सदैव उनके साथ रहें। हम उन्हें इस क्षुद्र काया से उनकी मुक्ति पर प्रसन्न होते हुए, अपने प्रेम और अपने सद् भाव के पंखों पर बैठा कर भेज रहे हैं। उनकी चेतना को उन्नत करो ताकि वह सदा के लिए आप में लीन रहें क्योंकि आप ही हमारी आत्माओं के परम ध्येय हैं। 

हमें भी जो इस नश्वर घाट पर पीछे छूट गए हैं, आशीर्वाद दें, ताकि इस संसार में हम अपने कर्त्तव्यों को जारी रख सकें, जैसाकि उन्होंने किया, अपने संगी साथियों की सेवा को कर्त्तव्य न समझ कर आपकी सेवा के सौभाग्य को आशीर्वाद समझ कर। 

हे जगन्माता हमारे जीवन को अपने दिव्य साँचे के अनुरूप गढ़ें। हम अपने प्रेम, अपने समर्पण के पुष्प आपके सर्वव्यापक चरणों में अर्पित करते हैं।  

ओम शान्ति, शान्ति, शान्ति

[1] यद्यपि दया माता पूरे सत्र में उनको उनके संन्यासी नाम से सम्बोधित करती रहीं, पर स्वामी श्यामानन्द बहुत से वाईएसएस-एसआरएफ़ सदस्यों के बीच उनके पारिवारिक नाम बिनयेन्द्र नारायण दुबे के नाम से जाने जाते थे; और जब दया माता ने उन्हें योगाचार्य (योग शिक्षक) की उपाधि प्रदान की, तो वह योगाचार्य बिनय नारायण के नाम से दी। अक्टूबर 1970 में उन्होंने औपचारिक संन्यास दीक्षा (स्वामी संबंधि प्रण) श्री दया माता से ग्रहण की; तब उन्होंने उन्हें स्वामी श्यामानन्द गिरि नाम प्रदान किया।

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