परमहंस योगानन्दजी

श्री श्री दया माता द्वारा

उनकी पुस्तक Finding the Joy Within You:
Personal Counsel for God-Centred Living
से

जैसे जैसे वर्ष बीतते जाते हैं, मन नए अनुभवों को एकत्र करता है जब कि समय विगत यादों को आमतौर पर धुंधला कर देता है। लेकिन जो घटनाएँ आत्मा को स्पर्श करती हैं वे कभी फीकी नहीं पड़तीं; वे हमारे अस्तित्व का अमिट अंश बन जाती हैं। ऐसा ही था मेरा अपने गुरु परमहंस योगानन्दजी से मिलना।

मैं सत्रह वर्ष की किशोरी थी, और मुझे जीवन एक लम्बा खाली गलियारा प्रतीत होता था जो कहीं नहीं ले जाता। एक ईश प्रार्थना निरंतर मेरी चेतना में घूमती रहती कि वह मेरे कदमों का एक अर्थपूर्ण अस्तित्व की ओर मार्गदर्शन करें।

उस तड़प का उत्तर एक तत्क्षण अनुभूति में तब मिला जब 1931 में मैंने साल्ट लेक सिटी के एक बड़े और भीड़ भरे ऑडिटोरीयम में कदम रखा और परमहंसजी को मंच पर खड़े, ईश्वर पर इतने अधिकारपूर्वक बोलते देखा, जैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैं एकदम स्तब्ध हो गई — मेरे श्वास, विचार, समय रुक से गए। मुझ पर बरसती एक प्रेममयी, आभारपूर्ण कृपा की अनुभूति अपने साथ मेरे अंतरतम से उठती एक गहन आस्था का एहसास लेकर आई। “यह व्यक्ति ईश्वर से प्रेम करता है जिस तरह उसे प्रेम करने की मेरी लालसा रही है। वह ईश्वर को जानता है। मैं उसका अनुसरण करूँगी।”

प्रतिष्ठा एवं सत्यनिष्ठा को बनाये रखना

मैंने एक पूर्वकल्पित आदर्श गढ़ रखा था कि एक आध्यात्मिक शिक्षक को कैसा होना चाहिए। आप कह सकते हैं मेरी मन:दृष्टि में एक स्थान बना था जहाँ ऐसे व्यक्ति को आरूढ़ करना था। मैंने श्रद्धापूर्वक मन ही मन अपने गुरु को वहाँ बिठाया; और उन अनेकों वर्षों में, जब मुझे उनके सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ, कभी एक बार भी, चरित्र या कर्म से उन्होंने उस बुलंद ऊँचाई से कदम नीचे नहीं रखा।

यद्यपि हमारे समय में सत्यनिष्ठा, प्रतिष्ठा और आदर्श, स्वार्थ सिद्धि ज्वार की लहर में तिरोहित हो गए हैं, गुरुदेव बिना समझौता किए शाश्वत आध्यात्मिक मूल्यों के साथ जिए, और उन्हें सदा शिष्यों के सम्मुख रखा। मुझे 1931 का वह समय याद आता है जब धन की अत्यंत आवश्यकता थी। इस अवधि में वित्तीय संसाधन इतने अल्प थे कि गुरु और शिष्य पतले सूप और ब्रेड या निराहार रह कर गुज़ारा करते थे। हमारे मदर सेंटर माउण्ट वाशिंगटन संपत्ति की गिरवी राशि बकाया थी। परमहंसजी गिरवी धारक के घर उससे भुगतान के लिए समय मांगने के लिए मिलने गए। इस समझदार महिला ने विनम्रता से समय सीमा बढ़ा दी। फिर भी समय पर आवश्यक धन राशि जुटा पाना असंभव लग रहा था।

तब एक दिन, एक व्यवसाय में पैसा लगाने वाला गुरुजी की कक्षा में आया और उनकी शिक्षाओं में रुचि लेने लगा। उस व्यक्ति को शिक्षाओं में न केवल आध्यात्मिक मूल्य अपितु एक लाभदायक संभावना भी दिखी। “मुझे अपनी सोसाइटी के प्रचार का दायित्व दो और वर्ष भर में मैं आपको नक्शे पर ला दूँगा। आपके दसियों हज़ार शिष्य होंगे और आप डॉलरों में लोट रहे होंगे,” उसने परमहंसजी को आश्वासन दिया।

उसने पावन शिक्षाओं के व्यवसायीकरण की योजना बतायी। गुरुदेव विनम्रतापूर्वक सुनते रहे। इसका मतलब होता वित्तीय चिंताओं का अंत और उनके सामने खड़ी कठिनाइयों की पहले से ही रोकथाम। परन्तु पल भर भी हिचके बिना उन्होंने उस व्यक्ति को धन्यवाद कहा और उत्तर दिया : “कभी नहीं! मैं धर्म को कभी व्यवसाय नहीं बनाऊंगा, मैं इस कार्य से या मेरे आदर्शों से, कुछ डॉलर के लिए चाहे वे कितने भी ज़रूरी हों, कभी समझौता नहीं करुंगा!”

दो माह बाद मिसौरी के काँसाज़ शहर में सिखाते हुए उनके पूर्व कई जन्मों के उन्नत शिष्य राजर्षि जनकानन्द से भेंट हुई, जिनका सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना नियत था। इस महात्मा ने गुरु को अपने दिव्य शिक्षक और गुरु की शिक्षाओं को जीवन की दिनचर्या के रूप में अपना कर, समस्त बंधक राशि के बकाया भुगतान हेतु धनराशि भेंट की। हर्ष इतना अधिक था कि माउण्ट वॉशिंगटन में टेम्पल ऑफ लीव्स के नीचे अलाव जलाया गया और बंधक पत्र को लपटों के हवाले कर दिया गया। गुरुदेव की व्यावहारिक बुद्धि ने अवसर का लाभ उठाया और अंगारों पर आलू भून लिए। भक्तजन अलाव के चारों ओर गुरु के साथ एकत्र हो गए और आलू का आनन्द लिया — जब तक कि बंधक पत्र अच्छी तरह से भुनता रहा।

जगन्माता की उपस्थिति का आश्वासन

मेरी याद में और भी ऐसी घटनाएँ और गुरुजी की दिव्य शक्ति के अन्य पक्ष स्पष्ट हैं। बढ़ती हुई संख्या, शिष्यों के खाने, रहने और आश्रय के भार, और ईश्वर से सतत संवाद की हृदय की एकमात्र लालसा हेतु ध्यान भंग मुक्ति की इच्छा से वह एरिज़ोना के मरुस्थल चले गए। वहाँ वह एकांतवास में रहे, और अपनी प्यारी जगन्माता का ध्यान और उनसे प्रार्थना करते रहे कि संस्थागत दायित्वों के ध्यान बटाने वाले कार्यभार से उन्हें मुक्त करें। एक रात जब वह ध्यान कर रहे थे — “ऐसा लगा कि उसके उत्तर की लालसा की उत्कंठता से मेरा हृदय फट जाएगा।” उन्होंने कहा — वह उनके सम्मुख प्रकट हुईं और यह शांतिदायक शब्द कहे :

“जीवन का नृत्य हो या मृत्यु का नृत्य ,
जान लो कि इनकी दात्री मैं हूँ, और आनन्दमग्न रहो,
तुम्हें इससे अधिक क्या चाहिए, कि तुम्हारे पास मैं हूँ?”

इस आश्वासन के आनंद से भरे, कि जीवन और मृत्यु के बीच उनकी इष्ट जगन्माता सदैव उनके साथ हैं, वे शांत और संपूर्ण समर्पित प्रेम से परिपूर्ण हृदय लिए लौटे, उस मिशन को पुनः निभाने जो माँ ने उनके कंधों पर डाल दिया था।

गुरुदेव में महान् आध्यात्मिक शक्तियाँ थीं, जो ईश-साक्षात्कार करने वाले में सहज व्यक्त होती हैं। परमहंसजी ऐसी शक्तियों की व्याख्या मात्र यह कहकर करते थे कि यह उच्चतर नियमों की कार्यशीलता है। अपने मंत्रित्व के शुरुआती वर्षों में वह कभी-कभी, अविश्वासी समाज की आस्था बढ़ाने के लिए, उन नियमों का खुलकर प्रदर्शन करते थे। मैं उन कई में से एक थी जिन्हें उन्होंने तत्क्षण रोगमुक्त किया।

बाद के वर्षों में गुरुदेव कहते थे, “यदि मैं ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का प्रदर्शन करता, तो हज़ारों लोगों को आकर्षित कर लेता। लेकिन ईश-मार्ग कोई सर्कस नहीं है। मैंने शक्तियाँ ईश्वर को लौटा दीं, और उनका कभी प्रयोग नहीं करता, जब तक वह स्वयं ऐसा करने को न कहें। मेरा उद्देश्य मनुष्य की आत्मा में ईश्वर प्रेम जागृत करना है। मैं एक भीड़ पर एक आत्मा को प्राथमिकता देता हूँ, और मैं आत्माओं की भीड़ चाहता हूँ।” गुरुदेव जनसमूहों से बचने लगे और अपना ध्यान मात्रात्मक वृद्धि की जगह गुणात्मक वृद्धि पर देने लगे। वह भीड़ में उन आत्माओं को खोजते जो उनके उच्च आदर्शों और उनकी शिक्षाओं के आध्यात्मिक लक्ष्यों के प्रति रुचि दिखाते।

सेवा, ज्ञान और दिव्य प्रेम

एक पत्रकार ने एक बार मुझसे साक्षात्कार के दौरान पूछा, “आप क्या कहेंगे कि परमहंस योगानन्द एक ‘भक्ति’, ‘ज्ञान’ या ‘कर्म योगी’ थे?” मैंने उत्तर दिया, “वह बहु आयामी थे। अमेरिकी लोगों के मन और हृदय तक पहुँचने के लिए ऐसा स्वभाव, कद और समझ होना ज़रूरी था। इसने भारतीय जीवन और अमेरिकी जीवन के बीच की खाई पाटने में उनकी मदद की; उनकी शिक्षाओं में एक सार्वभौमिक गुण व्यक्त होता है, जो पश्चिम पर वैसे ही लागू होता है जैसे पूर्व में।”

एक ‘कर्म योगी’ की तरह, परमहंसजी ने ईश्वर व मानव जाति के उत्थान हेतु, इस संसार में दुर्लभ समर्पण के साथ काम किया। हमने उन्हें अवसर पड़ने पर किसी की सहायता करने से बचते हुए कभी नहीं देखा। वह कष्ट भोगने वालों के लिए रोते थे, और समस्त पीड़ा के मूल कारण — अज्ञान को मिटाने के लिए अथक परिश्रम करते थे।

एक ‘ज्ञानी’ की भाँति उनका ज्ञान उनके लेखों, व्याख्यानों और व्यक्तिगत परामर्शों में लबालब बहता था। उनकी ‘योगी कथामृत’ को योग पर एक प्रमाणिक पुस्तक माना गया है और कई कॉलेज और विश्वविद्यालयों के कई पाठ्यक्रमों में पढ़ी और पढ़ाई जाती है। इसका मतलब यह नहीं है कि परमहंसजी मात्र एक बुद्धिजीवी थे। उनके लिए अनुभूतिहीन बौद्धिकता वैसे ही व्यर्थ थी जैसे मधु के बिना छत्ता। उन्होंने धर्म पर पड़े रूढ़ियों व सैद्धांतिक विश्लेषण के परदों को हटाया और सत्य के हृदय को खोल कर रख दिया : वह आधारभूत सिद्धांत, जो मानव जाति को न केवल ईश्वर की समझ प्रदान करते हैं बल्कि उसको उसे पाने की राह भी दिखाते हैं।

अपने अनुयायियों में परमहंस योगानन्द, और बातों से ऊपर, ‘प्रेमावतार’, दिव्य प्रेम का अवतार, एक सर्वोच्च ‘भक्त’ के रूप में जाने जाते हैं। उनके चरित्र की असाधारणता, उनका ईश्वर के प्रति अगाध प्रेम था, जिन्हें श्रद्धा से वह जगन्माता कहते थे। प्रथम कमांडमेंट में जीसस ने कहा है “तुम प्रभु को प्यार करोगे, अपने ईश्वर को अपने संपूर्ण हृदय से, और अपनी संपूर्ण आत्मा से और अपने संपूर्ण मन से।” परमहंसजी ने उसी प्रेम का प्रदर्शन किया चाहे वह भीड़ को संबोधित कर रहे हों जैसा कि अमेरिका में उनके शुरुआती दिनों में देखा गया था; बढ़ती हुई सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप/योगदा सत्संग सोसाइटी की विश्वव्यापी आवश्यकताओं का प्रबंधन हो; या उन लोगों का मार्गदर्शन जो उनके पास आध्यात्मिक प्रशिक्षण के लिए आते थे।

परमहंसजी आग उगलने में भी सक्षम थे, जब आध्यात्मिक अनुशासन की बात आ जाए, लेकिन सदैव ही एक अनन्त दया भाव और धैर्य रहता, जब भी धैर्य की आवश्यकता होती। अच्छा, मैं उनके वह शब्द बताती हूँ जो उनके कार्य के कुछ विरोधी आलोचकों द्वारा उन पर हमला किए जाने पर, हमारे गुस्सा होने पर उन्होंने कहे थे : “कभी भी दूसरे शिक्षकों और समाजों के विरुद्ध निर्मम शब्द मत बोलो। कभी भी दूसरों का सिर काट कर कद लंबा करने का प्रयत्न मत करो। इस संसार में सभी के लिए पर्याप्त स्थान है, और हमें निर्दयता व घृणा का प्रतिकार अच्छाई और प्रेम से करना चाहिए।”

उन्होंने विश्व को एक “सर्वजनीन प्रार्थना” दी जिसका विषय उनके जीवन की धड़कन था : “प्रिय भगवान्, आपका प्रेम मेरी भक्ति की वेदी पर सदैव अलौकित रहे, और मैं वही प्रेम दूसरों के हृदय में जागृत कर सकूँ।”

“केवल प्रेम ही मेरा स्थान ले सकता है”

गुरुदेव जीवन के अंतिम काल में भारतीय राजदूत डॉ बिनय रंजन सेन (जिन्हें अगली प्रातः गुरुजी से मिलने हमारे सेल्फ़-रियलाइज़ेशन मुख्यालय आना था) के आगमन की तैयारी कर रहे थे। गुरुजी ने शिष्यों को रसोई घर में बुलाया और कहा, “आज हम राजदूत के लिए रसीली सब्ज़ियाँ एवं भारतीय मिठाइयाँ बनाएँगे।” हम दिन भर व्यंजन बनाते रहे और गुरुजी अति आनंद की अवस्था में थे।

देर शाम उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, “आओ टहलते हैं।” आश्रम एक विशाल तिमंज़िला भवन है। जब हम तीसरी मंज़िल के हॉल में टहल रहे थे, वह अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी के चित्र के सम्मुख ठिठक गए। वह काफी समय तक चित्र को निहारते रहे — अपलक और फिर चुपचाप मेरी ओर मुड़े और कहा “क्या तुम्हें भान है कि घंटों की बात है और मैं इस पृथ्वी से चला जाऊँगा?” मेरी आँखों में आंसुओं की बाढ़ आ गई, मुझे सहज ज्ञान था कि उन्होंने जो कहा वह घटित होगा। थोड़े समय पहले ही, जब उन्होंने मुझे अपने देह त्याग के विषय में बताया, मैंने रोते हुए कहा, “गुरुदेव, आप हमारे हृदयों और अपनी सोसाइटी रूपी अंगूठी के हीरे हैं। हम आपके बिना कैसे रहेंगे?” अत्यंत प्रेम और दया पूर्वक और दिव्यांश के मृदुल कुंड जैसे नेत्रों से उन्होंने उत्तर दिया, “जब मैं चला जाऊँगा, केवल प्रेम ही मेरा स्थान ले सकता है। ईश्वर प्रेम में इतने डूब जाओ कि तुम्हें ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ पता न हो, और वही प्रेम सभी को दो।”

अंतिम दिन उन्हें लॉस एंजेलिस शहर के बीच राजदूत के सम्मान में आयोजित एक भोज में बोलना था। हम जो उनकी सेवा में रहते थे, भोर में जल्दी ही जग गए और उनके द्वार पर पहुँचे, यह पूछने कि हम क्या कर सकते थे। जब हमने प्रवेश किया, उनको उसी कुर्सी पर चुपचाप बैठे पाया, जिसमें वह नित्य ध्यान करते थे और अक्सर परमानंद में होते थे। जब वह हमसे बात नहीं करना चाहते, तो वह अपनी उंगली अपने होठों पर रख देते, जिसका अर्थ होता, “मैं मौन हूँ।” जिस क्षण उन्होंने ऐसा किया मुझे उनकी आत्मा सिमटती दिखाई दी, यह भी कि वह धीरे-धीरे उन हर छिपे बंधन को तोड़ रहे थे जो आत्मा को देह से बाँधता है। शोक से मेरा हृदय भर गया, और फिर शक्ति से भी, क्योंकि मैं जानती थी कि चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए, मेरे समर्पण के चलते, मेरे गुरु मेरे हृदय को कभी नहीं छोड़ेंगे।

दिन भर वह उसी अंतरचेतना की अवस्था में रहे। शाम के समय हम उनके साथ उस बड़े होटल गए जहाँ भोज आयोजित था। जल्दी पहुँचकर गुरुजी ने ऊपर के एक छोटे से कमरे में चुपचाप ध्यान करते हुए प्रतीक्षा की। हम शिष्य उनको घेर कर फर्श पर बैठ गए। कुछ समय बाद उन्होंने हम सब को बारी-बारी से निहारा। जब उन्होंने मेरी ओर देखा, मुझे याद है मैं सोच रही थी, “मेरे प्रिय गुरुदेव, मुझे विदाई दर्शन दे रहे हैं।” फिर वह नीचे भोज वाले हॉल में चले गए।

वहाँ विशाल श्रोता समूह था जिनमें शहर, राज्य और भारत सरकार के कर्मचारी थे। मैं वक्ताओं के मंच से थोड़ी दूर बैठी थी, लेकिन मेरा मन और दृष्टि धन्य गुरु के चेहरे से नहीं हटे। अंतत: उनके बोलने का समय आ गया। गुरुदेव राजदूत सेन से पहले बोलने वालों में अंतिम थे। गुरुजी जैसे ही अपनी कुर्सी से उठे, मेरे दिल की धड़कन रुक गई, और मैंने सोचा, “ओह, यही क्षण है!”

जब उन्होंने अत्यधिक ईश्वर प्रेम के साथ बोलना शुरू किया, तो समस्त श्रोतागण एक व्यक्ति की तरह हो गए, कोई भी हिला तक नहीं। वे मंत्रमुग्ध थे, प्रेम की उस विशद शक्ति पर, जो वह अपने हृदय से उन सभी पर उड़ेल रहे थे। उस रात कई जीवन बदल गए — जिनमें कुछ बाद में आश्रम में संन्यासी बनने वाले व अधिकतर सोसाइटी की सदस्यता लेने वाले शामिल थे — उस दिव्य अनुभव के कारण। उनके अंतिम शब्द भारत के विषय में थे, जिसे वह बहुत प्रेम करते थे :

“जहाँ गंगा, वन, हिमालय की कंदराएं, और मनुष्य ईश्वर के स्वप्न देखते हैं —
मैं पावन हो गया; मेरी देह ने उस भूमि को छुआ।”

इन शब्दों के साथ ही उन्होंने अपनी दृष्टि ‘कूटस्थ’ में केंद्रित कर ली और उनकी देह फर्श पर ढेर हो गई। पल भर में ही — जैसे हमारे कदमों ने धरती को छुआ ही न हो — भक्तों में से हम दो [दया माता और आनन्द माता] उनके पास जा पहुँचे। यह सोच कर कि वह समाधि रूप हो गए हैं, हम उनके दाहिने कान में मृदुलता से ओम का उच्चारण करने लगे (वर्षों से उन्होंने हमें सिखाया था कि यदि वह आनन्द में मग्न हों और कुछ समय बाद उनको चेतना न लौटे तो हम उनके दाहिने कान में ओम का जप या उच्चारण करके उस अवस्था से बाहर ला सकते हैं।)

जब मैं जप कर रही थी तो एक चमत्कारिक अनुभव हुआ। मुझे नहीं पता कि उसका वर्णन आपके सम्मुख कैसे करूं; लेकिन जैसे ही मैं अपने दिव्य गुरु की ओर झुकी, मैंने देखा कि उनकी आत्मा देह त्याग रही थी; और तभी एक विराट शक्ति मुझमें समा गई। मैं “विराट” कह रही हूँ क्योंकि वह प्रेम, शांति और समझ की अपरिहार्य शक्ति थी। मुझे याद है मैं सोच रही थी, “यह क्या है?” मेरी चेतना इस तरह उन्नत कर दी गई थी कि मैं शोक अनुभव नहीं कर सकी, मैं आँसू नहीं बहा सकी; और उस दिन से आज तक वैसा ही है, क्योंकि मैं निसंदेह यह जानती हूँ कि वह सच में मेरे साथ हैं।

मृत्यु का उन पर कोई अधिकार नहीं

किसी ने मुझसे पूछा, “क्या हमारे गुरु देह त्याग के बाद तुम्हारे समक्ष प्रकट हुए हैं?” हाँ, वह हुए हैं। मैं इस विषय में अपने वृत्तांत में और बताऊंगी। उनकी त्वचा स्वर्णिम थी, जैसे कि सुनहरे प्रकाश में नहाई हो; और मधुरतम, अत्यंत सौम्य मुस्कान उनके अधरों पर थी, मानो प्रत्येक को आशीर्वाद हो। गुरुजी के देह त्याग के 21 दिन बाद भी वह आकार परिपूर्ण संरक्षित अवस्था में था। और अत्यंत तथ्यपरक पश्चिमी गोलार्ध में भी समाचार पत्र इस चमत्कारिक घटना की प्रशंसा में सुर्खियों और रिपोर्टों से भरे थे। शवगृह ताबूत कर्मियों जिन्होंने उनके पार्थिव शरीर को गौर से देखा, ने कहा कि “परमहंस योगानन्द प्रकरण हमारे लिए एक असाधारण अनुभव है।”

इसको अधिक समय नहीं बीता था कि गुरुदेव के कार्य का नेतृत्व करने का संपूर्ण दायित्व मेरे कंधों पर आ गया।

जब एक महान् शिक्षक संसार से जाता है तो अक्सर गुरु द्वारा आरंभ किए मिशन को कैसे मार्गदर्शन किया जाए, इस पर कुछ मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं। मेरे नेतृत्व संभालते ही सुबह कार्य चर्चा के समय प्रश्न उठे कि कार्य का मार्गदर्शन गृहस्थों के हाथ में हो या संन्यासियों के? गुरुजी ने हमसे कहा था कि उनके समान किसी एकचित्त त्यागी को होना चाहिए; लेकिन उस निर्देश को कुछ सदस्यों द्वारा चुनौती दी जा रही थी। ये सच है कि गुरुजी सभी शिष्यों से समान प्रेम करते थे। मुझे भी लगा कुछ भेद नहीं है; इसलिए बंधन क्यों? एक भक्त एक भक्त होता है क्योंकि वह ईश्वर से प्रेम करता है, न कि इसलिए कि वह गेरुआ वस्त्र धारण करता है। लेकिन मेरा मन बेचैन था।

उस रात, मैंने गहन ध्यान और प्रार्थना कर गुरुजी से उत्तर मांगे। बहुत देर हो गई थी और मैं अभी भी ध्यान कर रही थी जब अचानक मैंने अपने शरीर को बिस्तर से उठते, हॉल से होते हुए, गुरुजी के कमरे में प्रवेश करते देखा। जैसे ही मैंने ऐसा किया, मैंने आँखों के कोनों से उनकी चद्दर (शॉल) को जैसे हल्के झोंके से फड़फड़ाते देखा। मैं मुड़ी और वहाँ मेरे गुरु खड़े थे! मैं कितनी खुशी से उनकी तरफ दौड़ी और उनके चरणों को पकड़, चरण रज लेने के लिए झुकी।

“मास्टर, मास्टर,” मैं चिल्लाई, “आप मृत नहीं हैं! मृत्यु का आप पर कोई अधिकार नहीं है।” कितनी मधुरता से उन्होंने झुक कर मेरे माथे पर छुआ। जैसे ही उन्होंने ऐसा किया, उस क्षण में, मैं उत्तर जान गई जो मुझे अगली सुबह बैठक में देना है। गुरुजी ने मुझे आशीर्वाद दिया और मैंने फिर एक बार अपने को अपने बिस्तर पर बैठे देखा।

अगली सुबह मैं सोसाइटी के डायरेक्टरों से मिली और गुरुजी प्रदत्त उत्तर दिया; और उनका कार्य संगठित हुआ और तब से उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। ईश्वर का ऐसा आशीर्वाद है।

अमर गुरु

परमहंस योगानन्दजी सदैव सेल्फ़-रिलाइजे़शन फ़ेलोशिप/योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के गुरु और सर्वोच्च आध्यात्मिक प्रमुख रहेंगे। हम सभी कार्यकर्ता उनके द्वारा आरंभ किए गए कार्य की, उनके शिष्यों की तरह विनम्र सेवा करते हैं। हमारी एकमात्र इच्छा, इस पथ पर आने वालों के ध्यान और भक्ति को ईश्वर की ओर, और हमारे दिव्य गुरु की ओर उन्मुख करना है, जो उन्हें ईश्वर से परिचित करा सकते हैं। गुरुदेव सदा हमें यह याद दिलाने में देर नहीं करते थे कि अंतत; केवल वह ईश्वर ही है जो गुरु हैं। ईश्वर के एक साधन के रूप में, गुरुदेव की एकमात्र इच्छा हमें उस दिव्य स्रोत की और आकर्षित करना है, जिससे हम अपनी आत्मा की खोज का वैसा उत्तर पा सकते हैं जैसा किसी और से नहीं। गुरु के प्रति निष्ठावान होना, ईश्वर के प्रति निष्ठावान होना है। गुरु और उनके कार्य की सेवा, ईश्वर की सेवा है, क्योंकि वह ईश्वर ही हैं जिन्हें हम अपनी प्रथम निष्ठा समर्पित करते हैं। गुरु दिव्य रूप से नियुक्त वह आध्यात्मिक माध्यम है जिसके आशीर्वाद एवं प्रेरक शिक्षाओं द्वारा हमें ईश्वर प्राप्ति का मार्ग मिलता है।

मैं सोचा करती थी कि गुरुदेव के परलोक गमन के बाद श्रद्धालुओं को गुरु-शिष्य संबंध समझने में कठिनाई होगी। मैंने इस शंका को कभी गुरुजी से व्यक्त नहीं किया; पर वह अक्सर हमारे अनकहे विचारों के उत्तर देते थे। एक शाम मैं उनके चरणों में बैठी थी जब उन्होंने मुझसे कहा, “जो मुझे निकट समझेंगे, मैं उनके निकट होऊँगा। यह काया कुछ भी नहीं है। यदि तुम इस भौतिक शरीर से आसक्त हो, तुम मुझे मेरे अनंत स्वरूप में पाने में समर्थ नहीं होगे। लेकिन यदि तुम मुझे इस देह से परे देखो और मेरे सच्चे स्वरूप को देखो, तब तुम जान जाओगे कि मैं सदैव तुम्हारे पास हूँ।”

इस वक्तव्य का सच पूर्ण रूप से समझने में समय लगा जो कुछ समय बाद समझ आया। एक शाम जब मैं ध्यान कर रही थी, मेरे मन में विचार आया : जीसस क्राइस्ट के इस पृथ्वी पर कुछ वर्षों के मंत्रालय की अवधि में उनके आसपास जुटे उनके सभी शिष्यों के विषय में सोचा जाए। कुछ उन्हें बहुत मानते थे; कुछ ने उनकी नि:स्वार्थ सेवा की। लेकिन भीड़ में से कितनों ने उन्हें सही मायने में समझा और अंत तक अनुसरण किया? उनके बड़ी परीक्षा के समय, और उनके अंत समय में कितने लोग उनके साथ खड़े हुए, उन्हें समर्थन दिया? बहुतों ने, जो जीसस को जानते थे जिनके पास उनका अनुसरण करने का अवसर था, उनको जीते जी त्याग दिया। और फिर भी जीसस क्राइस्ट के इस पृथ्वी से जाने के 1200 वर्ष बाद, एक विनम्र, मधुर, सरल, श्रद्धालु आया और अपने सुंदर जीवन और निपुण समस्वर्ता एवं समन्वय से, जीसस द्वारा सिखाई हर बात को अपने उदाहरण से जीवंत कर दिया, और ईश्वर को प्राप्त कर लिया। वह विनम्र तुच्छ व्यक्ति असीसी के संत फ्रांसिस थे, जिन्हें गुरुजी बहुत प्रेम करते थे। मुझे बोध हुआ कि वही आध्यात्मिक नियम, जिसके माध्यम से संत फ्रांसिस ने अपने गुरु से संपूर्ण समस्वर्ता प्राप्त की, जो कि उनके सदियों पूर्व पृथ्वी पर अवतरित हुए थे, आज भी हमारे लिए क्रियाशील हैं।

ईश्वर द्वारा नियुक्त एक सच्चा गुरु चिरंजीवी होता है। वह अपनों को जानता है और उनकी सहायता करता है, चाहे वह शिष्य के धरातल पर अवतरित हो या न हो। वैसे भी, जो श्रद्धा और गुरु प्रदत्त गहन ध्यान के माध्यम से गुरुदेव के साथ समस्वर होने का प्रयास करते हैं, उनके मार्गदर्शन के आश्वासन, उनके आशीर्वाद का उतना ही अनुभव आज करेंगे, और सदा भविष्य में भी करेंगे, जितना हम जब उनके शरीर में होते हुए करते थे। यह उन सभी के लिए बहुत बड़ी सांत्वना है जो परमहंस योगानन्दजी के जाने के बाद आए हैं, और जो इस बात का शोक करते हैं कि उन्हें इन धन्य गुरु को उनके जीवन काल में जानने का अवसर नहीं मिला : आप मौन ध्यान में बैठकर उन्हें जान सकते हैं। श्रद्धा एवं प्रार्थना से, गहन से गहनतर होते ध्यान में जाकर आप उनका पावन सानिध्य अनुभव कर सकते हैं। यदि हम जिन्हें उनके कार्य को आगे ले जाना है, वही इसको नहीं समझेंगे और अनुभव करेंगे, तो हम उनके कार्य की सेवा में असहाय हो जाएंगे। क्योंकि हम उनका आशीर्वाद अनुभव करते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि वह आज भी हमारे उतने ही निकट हैं, जितने देह में हमारे साथ थे, इसीलिए हम में वह शक्ति, दृढ़ता, उत्साह, श्रद्धा और आस्था है कि हम सेल्फ़-रिलाइजे़शन फ़ेलोशिप के अपने हिस्से का काम कर पाते हैं।

परमहंस योगानन्दजी के जीवन और कार्य ने इतिहास की धारा को प्रभावित करने का काफी पर्याप्त कार्य पहले ही कर दिया है, और मुझे विश्वास है कि यह उस प्रभाव की शुरुआत भर है। वह उन दिव्य आत्माओं की सभा के सदस्य हैं जिन्होंने मानवीय राहों को आलोकित करने के लिए सत्य के प्रकाश पुंज बन धरती पर अवतार लिया। देर-सबेर विश्व को उस प्रकाश की ओर मुड़ना ही है क्योंकि यह ईश्वर की इच्छा नहीं है कि मनुष्य अपने अज्ञान के हाथों नष्ट हो जाए। एक बेहतर कल प्रतीक्षारत है कि मानव अपनी आँखें खोल भोर को देखे। परमहंस योगानन्द और उस दिव्य दीप्ति को प्रतिबिंबित करने वाले अन्य उस नए दिन के प्रकाश वाहक हैं।

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